आचार्यदेवे आत्मानो परथी भिन्न अकर्ता–अभोक्ता ज्ञानमात्र स्वभाव बताव्यो
छे.
कर्ता–भोक्तापणुं समातुं नथी, ज्ञानमां रागादिनुं कर्तापणुं मानवुं ते तो आंख पासे
पथरा उपडाववा जेवुं छे. ज्ञानभावनी मूर्ति आत्मा छे, ते ज्ञानरूपे परिणमेला
ज्ञानी रागादिना कर्ता–भोक्तापणे परिणमता नथी. ज्ञानना परिणमनमां रागनुं
परिणमन नथी. शुद्धपरिणतिमां अशुद्ध परिणतिनुं कर्तृत्व केम होय?
शुद्धपरिणतिरूपे परिणमेलो जीव पण रागादि अशुद्धतानो कर्ता–भोक्ता नथी. तेनुं
उपादान शुद्धपणे परिणमी रह्युं छे. शुद्ध उपादानरूपे परिणमतो ते जीव शुद्धभावनो
ज कर्ता–भोक्ता छे, ते अशुद्धतानो कर्ता–भोक्ता नथी. आवी शुद्धतारूपे परिणमेलो
आत्मा ते शुद्धआत्मा छे.
ज्ञानस्वरूपनी श्रद्धा ने अनुभव करवो ते करवानुं छे. परभावनुं कर्तृत्व–भोक्तृत्व
ज्ञानने सोंपवुं ते तो बोजो छे, कोई आंख पासे रेती उपडाववा मांगे तो ते
आंखनो नाश करवा जेवुं छे; तेम जडनुं ने पुण्य–पापनुं कार्य ज्ञान पासे कराववा
मागे छे तेने ज्ञाननी श्रद्धा ज नथी. धर्मी तो विकार वगरना ज्ञानमात्रभावे पोताने
अनुभवे छे. शुद्धद्रष्टिनी जेम शुद्धज्ञान (क्षायिकज्ञान) पण रागादिनुं अकर्ता–
अभोक्ता छे. क्षायिकज्ञान कहेतां तेरमा गुणस्थाननी ज वात न समजवी; चोथा
गुणस्थानथी पण जे शुद्ध ज्ञानपरिणमन थयुं छे ते पण क्षायिकज्ञाननी जेम ज
रागादिनुं अकर्ता ने अभोक्ता छे. ज्ञाननो स्वभाव ज रागादिनो अकर्ता–अभोक्ता
छे. अहो! मिथ्यात्व छूटतां जीव सिद्धसद्रश छे. जेम केवळज्ञान थतां रागादिनुं कर्ता–
भोक्तापणुं जरापण रहेतुं नथी तेम अहीं पण ज्ञाननो एवो ज स्वभाव छे–एम
धर्मीजीव जाणे छे.