Atmadharma magazine - Ank 301
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : कारतक : २४९प
अहो! जेम केवळज्ञानमां रागनुं के परनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी, तेम ज्ञानना
कोई अंशमां परनुं के रागनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी. आत्मा आवा ज्ञानस्वभावथी
भरपूर छे. ज्ञानमां एवुं कोई बळ नथी के परने करी द्ये. केवळज्ञान थतां ज्ञाननुं जोर
घणुं वधी गयुं तेथी ज्ञान परमां कांई करे–एम बनतुं नथी. भाई, तारुं ज्ञान तो
पोताना आनंदने भोगवनारुं छे, ए सिवाय परने तो ते करतुं–भोगवतुं नथी. ज्ञाननी
अनंती ताकात प्रगटी–पण ते ताकात शुं करे?–पोताना पूरा आनंदने ते वेदे, पण परमां
कांई करे नहि. भाई! अनंत वीर्यसहित एवुं जे क्षायिकज्ञान तेमां पण परने करवा–
भोगववानी ताकात नथी तो तारामां ए वात क््यांथी लाव्यो? तने क्षायिकज्ञाननी
खबर नथी एटले तारा ज्ञानस्वभावनीये तने खबर नथी.
आवा ज्ञानस्वभावने ओळखीने जे शुद्ध ज्ञानपरिणतिरूपे परिणम्यो ते जीव शुं
करे छे?–के बंध–मोक्षने तेमज उदय–निर्जराने जाणे ज छे. कर्मनी बंध–मोक्ष के उदय–
निर्जरारूप अवस्थाने ज्ञान जाणे ज छे. जेम केवळज्ञान साता वगेरेना परमाणु आवे के
जाय तेने मात्र जाणे ज छे, तेम सर्वज्ञस्वभावनी द्रष्टिवाळो धर्मीजीव पण कर्मना बंध–
मोक्षने के उदय–निर्जराने जाणे ज छे. रागादिने पण ते जाणे ज छे, पण तेनुं ज्ञान ते
अशुद्धता साथे भळी जतुं नथी, जुदुं ज रहे छे. ज्ञान साथे अतीन्द्रिय आनंदनो
भोगवटो छे, परंतु रागनो के परनो भोगवटो ज्ञानमां नथी.
त्रिकाळी द्रव्यस्वभावमां तो परनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी, अने ते स्वभावनी
द्रष्टिरूप जे निर्मळ परिणति थई तेमां पण परनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी. में राग करीने
पुण्यकर्म बांध्यां, ने ते पुण्यना फळने हुं भोगवुं छुं–एम धर्मी मानता नथी, हुं तो ज्ञान
ज छुं, ने ज्ञानना फळरूप अतीन्द्रियआनंदने भोगवुं छुं.–एम धर्मी पोताने ज्ञान–
आनंदरूपे ज अनुभवे छे.
वळी कोई अशुभकर्मनो उदय आवी पडे (–जेम के श्रेणीकने नरकमां पापकर्मनो
उदय छे–) त्यां पण धर्मीजीव ते अशुभकर्मना फळरूपे पोताने नथी अनुभवता, ते तो
तेनाथी भिन्न ज्ञानपणे ज पोताने अनुभवे छे, पोताना आत्मिक आनंदने ज अनुभवे
छे. जे शुभाशुभ छे तेना वेदनने पोताना ज्ञानथी भिन्न जाणे छे. जेम सूर्य जगतना
अनेक शुभाशुभ