: कारतक : २४९प आत्मधर्म : २प :
पदार्थोने राग–द्वेष वगर प्रकाशे ज छे, पण तेने करतो के भोगवतो नथी, एवो ज एनो
प्रकाशकस्वभाव छे; तेम ज्ञानसूर्य–आत्मा पण पोताना चैतन्यकिरणो वडे
शुभाशुभकर्मना उदयने के निर्जराने, बंधने के मोक्षने जाणे ज छे, पण तेने करवा–
भोगववानो तेनो स्वभाव नथी. ज्ञान तो ज्ञानपणे ज रहे छे. ज्ञाननुं ज्ञानपणुं पोताथी
ज छे. कर्मनी जे अवस्था थाय तेने ते जाणे छे. आवो ज्ञानस्वभावी आत्मा छे–तेने
जाणीने ते ज्ञानस्वभावनी भावना करवी एवो उपदेश छे.
[क्रमश:]
गुरुदेव कहे छे के––
आत्मा ते अतीन्द्रिय–
आनंदनुं झाड छे. सम्यग्दर्शनथी
मांडीने केवळज्ञान सुधी जे
आनंददायी फळ छे ते आ अतीन्द्रिय
चैतन्य–झाडमां पाके छे.
बधी ऋतुमां मीठां फळ आपे
एवुं अतीन्द्रिय आनंदनुं झाड
आत्मा ज छे. सर्व शोकने हरनारुं
अशोकवृक्ष पण ते ज छे.