: ३८ : आत्मधर्म : कारतक : २४९प
अनंत आत्मा, तेमां एकेक आत्मा सर्वज्ञस्वभावथी परिपूर्ण; ते एक आत्मामां
अनंत गुणो; एकेक गुणमां अनंती पर्याय थवानी ताकात;–आवी आत्मवस्तु ते ज
जगतमां सर्वोत्तम वस्तु छे; आवी स्व–वस्तुने ओळखीने तेमां वास करवो ते साचुं
वास्तु छे; ते स्वघरमां आवीने वस्यो, तेमां अतीन्द्रियसुखनुं वेदन छे. आवा आत्माना
अनुभवथी उत्तम जगतमां बीजुं कांई नथी. अनंत गुण–पर्यायनी ताकातथी परिपूर्ण
आत्मा, तेने प्रतीतमां–अनुभवमां लीधो ते सुखथी भरेला स्व–घरमां आवीने वस्यो.
आत्मानी जाहोजलाली अपार छे. आखी दुनियानी जाहोजलालीनुं ज्ञान तो जेनी एक
पर्यायमां समाई जाय छे–तेना अनंतगुणनी जाहोजलालीनी शी वात? आवा
अनंतगुण–पर्यायरूपी धन आत्मामां भर्युं छे. आ धनतेरसनुं धन! ने आ आत्मामां
अपूर्व वास्तु! आवा स्वघरमां वस्यो तेने कोईनी फीकर रहेती नथी...निश्चिंत नीराकुळ
थईने निजस्वभावना आनंदने ते वेदे छे.
शुद्धआत्मानी प्रसिद्धि शुद्धनयने आधीन छे. शुद्धनय वडे भगवान आत्मानी
चैतन्यलक्ष्मी प्रगट थाय छे. जड–पैसा वगेरे लक्ष्मी ते कांई आत्मानी लक्ष्मी नथी. पैसा
मळो, लक्ष्मी मळो–एनो अर्थ जडनो संयोग मळो–एम अज्ञानी संसारनी भावना
आवे छे. धर्मात्मा तो चैतन्यलक्ष्मीनी भावना भावे छे–जेमां जडनो संयोग नथी,
रागनो विकल्प नथी. शुद्ध आत्माना अनुभवथी सम्यग्दर्शनादि वीतरागी रत्नत्रय
प्रगटे–ते ज आत्मानुं साचुं धन छे. एवो अनुभव कर्यो तेणे साची धनतेरस उजवी.
अहा, मनुष्यपणामां आवो आत्मा ओळखे तेनुं मानवपणुं सफळ छे. आत्मानो
प्रेम जो न कर्यो ने रागनो–संयोगनो प्रेम राख्यो तो तेना फळमां चारगतिनां दुःख छे.
भाई, एकरूप तारुं शुद्धस्वरूप–जे संयोग साथे के राग साथे कदी एकमेक न थाय, तेने
लक्षमां लईने तेनो प्रेम कर, तेनी श्रद्धा अने अनुभव वडे परम सुखरूप मोक्षदशा प्रगट
थशे ने चारगतिनां दुःखनो अंत आवशे. भगवान महावीर परमात्माए पावापुरीमां
आवो उपदेश आप्यो हतो, ने आवा ज मार्गथी तेओ मोक्ष पाम्या. जगतना जीवोने
मोक्ष माटे आवो मार्ग भगवाने बताव्यो.
[वास्तुप्रसंगे भाईश्री प्रेमचंदभाईए सजोडे ब्रह्मचर्य–प्रतिज्ञा अंगीकार
करी हती; तथा छहढाळाना प्रवचननोनुं पुस्तक छपावीने आत्मधर्मना ग्राहकोने
भेट आपवानुं जाहेर कर्युं हतुं.]