: कारतक : २४९प आत्मधर्म : ३९ :
श्रीमद् राजचंद्रजीनां वचनामृत
(जन्म–शताब्दि लेखमाळा: (ले.–८) अंक २९प थी चालु)
(३८८) ज्ञानीनां वचननी परीक्षा सर्व जीवने सुलभ होत तो निर्वाण पण
सुलभ ज होत. (४६२)
(३८९) भुजाए करी जे स्वयंभूरमण समुद्र तरी गया, तरे छे अने तरशे ते
सत्पुरुषोने निष्काम भक्तिथी त्रिकाळ नमस्कार. (४७७)
(३९०) कषायादिनुं मोळापणुं के ओछापणुं न थाय त्यां सुधी ज्ञान घणुं करीने
उत्पन्न ज न थाय. (४८८)
(३९१) परमार्थ आत्मा शास्त्रमां वर्ततो नथी, सत्पुरुषमां वर्ते छे. (४८८)
(३९२) अनियमित अने अल्प आयुष्यवाळा आ देहे आत्मार्थनो लक्ष सौथी
प्रथम कर्तव्य छे. (४९३)
(३९३) “स्वभावमां रहेवुं, विभावथी मुकावुं” ए ज मुख्य तो समजवानुं छे.
(प०८)
(३९४) आत्मदशा साधे ते साधु. (प४९)
(३९प) सर्वज्ञे अनुभवेलो एवो शुद्ध आत्मप्राप्तिनो उपाय, श्रीगुरुवडे जाणीने
तेनुं रहस्य ध्यानमां लईने आत्मप्राप्ति करो. (६२प)
(३९६) जहां राग अने वळी द्वेष, तहां सर्वदा मानो कलेश;
उदासीनतानो ज्यां वास, सकळ दुःखनो छे त्यां नाश.
सर्वकाळनुं छे त्यां ज्ञान, देह छतां त्यां छे निर्वाण;
भव छेवटनी छे ए दशा, राम धाम आवीने वस्या.
–वर्ष २३ मुं (८प)
(३९७) जेना विना एकपळ पण हुं नहीं जीवी शकुं एवा केटलाक पदार्थो (स्त्री
आदिक) ते अनंतवार छोडतां, तेनो वियोग थयां अनंतकाळ पण थई गयो; तथापि तेना
विना जीवायुं ए कंई थोडुं आश्चर्यकारक नथी. अर्थात् जे जे वेळा तेवो प्रीतिभाव कर्यो हतो
ते ते वेळा ते कल्पित हतो. एवो प्रीतिभाव कां थयो? ए फरी फरी वैराग्य आपे छे.