मागशर : २४९प आत्मधर्म : ९ :
अतीन्द्रिय सुखनी
आनंदकारी वात
प्रवचनसारना प्रवचनमांथी (गा. ६४) ‘कारतक सुद तेरस’
मोक्षसुखनी मजानी वात
मोक्षसुखनी मजानी वात सांभळतां मुमुक्षुने सहेजे उल्लास आवे छे: आ
संबंधमां उमराळानगरीना उजमबा–स्वाध्यायगृहमां दीवाल पर लख्युं छे के
“ज्ञानीना श्रीमुखथी आत्माना अतीन्द्रियस्वभावसुखनी वार्ता सांभळतां जेना
अंतरमां उल्लास आवे छे ते मुमुक्षुजीव जरूर मोक्ष पामे छे.” आवा मोक्षसुखनी
अद्भुत वात बेहजार वर्ष पहेलां कुंदकुंदाचार्यदेव आ भरतक्षेत्रमां संभळावता
हता, ए ज वात गुरुदेव आजे आपणने संभळावे छे....आवो, आनंदथी एनो
स्वाद चाखीए.
अतीन्द्रिय सुखनो परम महिमा बतावीने आचार्यदेवे कह्युं के अहो, आत्मानुं
आवुं जे परम सुख, तेनी श्रद्धा करनार सम्यग्द्रष्टि छे, आसन्नभव्य छे; पोतामां एवा
ईन्द्रियातीत सुखनो स्वाद जेणे चाख्यो छे ते ज सर्वज्ञना अतीन्द्रिय–पूर्णसुखनी
परमार्थ श्रद्धा करी शके छे. आवा सुखनी जेने खबर नथी ने ईन्द्रियविषयोमां ज
सुखनी लालसा करी रह्या छे ते जीवो आसन्नभव्य नथी; ते तो विषयोमां आकुळव्याकुळ
वर्तता थका दुःखमां तरफडे छे.
अतीन्द्रिय आत्माने जाणनारुं प्रत्यक्षज्ञान तो तेमने नथी, एकान्त परोक्षबुद्धि
वडे ईन्द्रियो ज तेमने मैत्री वर्ते छे; महा मोहना अतिशय दुःखने लीधे ते जीवो वेगथी
बाह्यविषयोने रम्य मानीने ते तरफ झंपलावे छे, पण तेमां साचा सुखनी गंध पण
मळती नथी, एटले ते जीवो एकांत दुःखी ज छे.