: १० : आत्मधर्म : मागशर : २४९प
आचार्यदेव कहे के अरे, ईन्द्रियो तरफ ज जेनुं ज्ञान एकाकार वर्ती रह्युं छे ते जीवोए
अतीन्द्रियसुखथी भरेला आत्मानी मित्रता छोडी दीधी, ने जड ईन्द्रियोनी साथे मित्रता करी.
तेने ईन्द्रियो जीवती छे, पण अतीन्द्रियभगवान आत्मा तो जाणे मरी गयो होय–एम एने
देखातो नथी. ईन्द्रियो अने तेना विषयो ज तेने देखाय छे पण तेनाथी पार अतीन्द्रिय
आनंदनो समुद्र तेने देखातो नथी. अरे, ज्यां सुधी भर्युं छे त्यां मित्रता नथी करतो, ने ज्यां
एकांत दुःख छे त्यां मित्रता करवा दोडे छे!–एवा जीवोने श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
अनंतसुख नाम दुःख त्यां रही न मित्रता,
अनंतदुःख नाम सुख प्रेम त्यां विचित्रता!
उघाड न्यायनेत्रने निहाळ रे! निहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तुं.
अरे, अनंतसुखथी भरेलो आ आत्मस्वभाव, तेनी आराधनामां दुःख कल्पीने
तेनी मित्रता तो छोडी दीधी, तेमां जराय दुःख नथी, एकलुं अनंतसुख भर्युं छे,–तेमां तुं
प्रीति केम नथी करतो? अने बाह्यविषयो–के जेनी प्रीतिमां अनंतदुःख छे, छतां त्यां
सुख कल्पीने अज्ञानी प्रेम करे छे,–ए आश्चर्यनी वात छे! जेमां सुख भर्युं छे एवा
पोता सामे तो जोतो नथी, ने जेमां स्वप्नेय सुख नथी तेमां प्रेम करे छे–ए अज्ञान छे.
आवा अज्ञानने हे जीव! तुं छोड! ने ज्ञाननेत्र उघाडीने जो.....तारामां ज सुख छे तेने
देख.....ने बाह्यविषयोमां सुखबुद्धिनी विपरीत प्रवृत्तिने तुं शोघ्र छोड.
ज्ञानीओने चैतन्यना अतीन्द्रियसुखना स्वाद पासे जगतना कोई विषयो रुचिकर
लागता नथी. शुभ के अशुभ कोईपण ईन्द्रियविषयोमां, के ते तरफना रागमां धर्मीजीवोने
कदी सुख भासतुं नथी. अरे, अतीन्द्रिय आनंदनो धणी आ चैतन्यभगवान, ते ईन्द्रियना
विषयोमां अटकी जाय–ए तो निंद्य छे. ईन्द्रियोने हत कीधी, त्यां ईन्द्रियो तो जड छे, पण ते
तरफनुं वलण ते हत छे, निंद्य छे ने दुःखरूप छे. दुःखी जीवो ज बाह्यविषयो तरफ
आकुळताथी दोडे छे. जो दुःखी न होय तो विषयो तरफ केम दोडे? अतीन्द्रिय चैतन्यसुखना
स्वादमां लीन सन्तोने ईन्द्रियविषयोसन्मुख वलण थतुं नथी.
अहा, आत्माना अतीन्द्रियसुखस्वभावनी अलौकिक वात प्रसन्नताथी जेना अंतरमां
बेठी, आचार्यदेव कहे छे के, ते जीव अल्पकाळमां मोक्ष पामशे; केमके तेनी रुचिनुं वलण
ईन्द्रियो तरफथी ने ईन्द्रियज्ञान तरफथी पाछुं खसीने अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदस्वभाव तरफ