Atmadharma magazine - Ank 302
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९प आत्मधर्म : ११ :
उल्लसित थयुं. चैतन्यस्वभावनी समीप अने ईन्द्रियोथी दूर थईने ते आत्मा
अतीन्द्रियसुखनो अनुभव करशे.
चैतन्यजीवननी ज्योत ईन्द्रियोमां नथी; ईन्द्रियोना संगे चैतन्यजीवननी ज्योत
झांखी पडी जाय छे. भाई! तुं अतीन्द्रिय वीतरागी चैतन्यज्योत छो, तारे ईन्द्रियो साथे
भाईबंधी केवी? अतीन्द्रिय स्वभावनी सन्मुख थयेली झळहळती ज्ञानज्योत, ते ज
अतीन्द्रिय सुखनुं कारण छे.
मुक्तजीवो सिद्धभगवंतो ईन्द्रिय के शरीर वगर ज परम सुखरूपे स्वयमेव
परिणमे छे, शरीर वगरनुं अतीन्द्रिय सुख ते भगवंतोने प्रसिद्ध छे; जेम त्यां शरीर
वगर ज सुख छे एटले शरीर ते सुखनुं साधन नथी; तेम नीचलीदशामां सशरीर
जीवोने पण शरीर ते सुखनुं साधन नथी. अज्ञानी मिथ्याकल्पनाथी माने भले के
शरीरमां ने ईन्द्रियविषयोमां सुख छे, परंतु ते कल्पना पण शरीरने कारणे के विषयोने
कारणे थई नथी. ए शरीरादिक तो अचेतन छे, ते जीवनी परिणतिमां अकिंचित्कर छे.
अज्ञानीनुं जे कल्पित ईन्द्रियसुख (खरूं सुख नहि पण सुखनी मात्र कल्पना)
तेमां पण शरीर कांई साधन थतुं नथी, सुखनी कल्पनारूपे शरीर नथी परिणमतुं, के
शरीर एम नथी कहेतुं के तुं मारामां सुखनी कल्पना कर. अज्ञानी पोताना मोहने वशे
ज परमां सुखनी मिथ्याकल्पना करे छे. आ रीते संसारअवस्थामां कल्पित सुखमां पण
शरीरादि विषयो साधन थता नथी, तोपछी सिद्धभगवंतोनुं जे परम अतीन्द्रिय सहज
आत्मिकसुख, तेमां शरीरादि विषयो शुं करे? ए तो अकिंचित्कर छे. आ रीते
ईन्द्रियविषयो वगरनुं आत्मानुं सुख प्रसिद्ध करीने समजाव्युं. अहो, आवा सुखने कोण
न स्वीकारे? आत्माना आवा सुखस्वभावने जाणीने बाह्यविषयोमां सुखबुद्धि कोण न
छोडे?–आचार्यदेव कहे छे के भव्यजीवो आत्माना सुखनी आ वात सांभळतां ज
उल्लासथी तेनो स्वीकार करे छे, ने बाह्यविषयोमां सुखनी बुद्धि तरत ज छोडे छे–एवो
जीव अल्पकाळमां मोक्षसुखने पामे छे.
जुओ, आ मोक्षसुखनी मजानी वात! आत्मा त्रिकाळ शुद्धउपादानस्वरूपे पूर्ण
अतीन्द्रिय परमसुखथी भरेलो छे. तेने भूलीने अशुद्ध उपादानपणे परिणमतो आत्मा
पोते ईन्द्रियसुखरूपे परिणमतो परमां सुखनी मिथ्या कल्पना करे छे. ए ज रीते ज्यारे
शुद्धस्वरूपनुं भान करीने स्वसन्मुख शुद्धउपादानरूपे परिणमतो आत्मा स्वयमेव