: १२ : आत्मधर्म : मागशर : २४९प
अतीन्द्रिय सुखरूप थाय छे, त्यारे तेमां पण परद्रव्यो जराय साधन नथी. बीजा कोई पण
कारण विना स्वयमेव आत्मा पोते सुखकारणरूप परिणमतो थको अतीन्द्रियसुखरूप थाय
छे. अहा, तारा मोक्षसुखनी केवी मजानी वात छे! सिद्ध जेवा सुखरूपे थवानी तारी
पोतानी ताकात छे, तेमां बीजा कोई साधननी जरूर नथी. ज्यां शरीर पण साधन नथी
त्यां बीजा साधननी शी वात! नीचली दशामां शरीर छे पण ते शरीर कांई साधन थईने
परमां सुखनी कल्पना नथी करावतुं; अज्ञानी पोते पोताना अज्ञानथी तेवी कल्पना करे छे.
आ रीते अज्ञानमां के ज्ञानमां, ईन्द्रियसुखनी कल्पनामां के अतीन्द्रियसुखना वेदनमां
क्यांय शरीर के ईन्द्रियो साधन नथी, जीव ज ते–रूपे परिणमे छे.
जीव पोते सुखस्वभावी छे. जेम ज्ञान जीवनो स्वभाव छे तेम सुख पण जीवनो
स्वभाव छे. ते स्वभावनी समीचीनदशामां अतीन्द्रियसुख छे, ने तेने भूलीने विपरीत
दशा थतां परमां सुखनी मिथ्याकल्पना करे छे.–पण तेमां परद्रव्य तो जीवने कांई करतुं
नथी. परने कारणे शुभराग नथी, ने शुभरागने कारणे साचुं सुख नथी. ज्ञानने
ईन्द्रियोथी पार करीने, स्वभावसन्मुख थतां अतीन्द्रियसुखनुं वेदन थाय छे; तेथी आवुं
अतीन्द्रियज्ञान ज अतीन्द्रियसुखनुं साधन छे. सुख कहो के धर्म कहो, तेमां शरीर,
ईन्द्रियो के राग ते जराय साधन नथी. ते बधायना अभावमां आत्मा पोते एकलो ज
परम सुखरूपे परिणमे छे; स्वयमेव सुखरूपे परिणमवानी शक्ति जीवनी छे.
अहो, मोक्षसुखनी आवी मजानी वात, ते प्रसिद्ध करीने आचार्यदेव कहे छे के
आवा दिव्य आत्मस्वरूपने जाणो.....ने बाह्यविषयोथी बस थाओ. सिद्धभगवान जेवा
अचिंत्य पोताना ज्ञान–आनंदस्वरूपने जाणीने, सुखार्थी जीवो विषयालंबीभाव छोडीने
आत्माना ज अवलंबने परम आनंदरूपे परिणमो.
* हे जीव! उत्तम सत्कार्यो तुं कर!
अने, जे सत्कार्य ताराथी न बनी शकतुं होय
ते सत्कार्य करनारा बीजा साधर्मीनी प्रशंसा
अनुमोदना करजे.....ईर्षा नहीं.