Atmadharma magazine - Ank 302
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९प आत्मधर्म : ३१ :
मोहने मूळमांथी उखेडीने शुद्ध आत्मानी प्राप्ति करवा माटे मुमुक्षुए सर्व उद्यमथी कटिबद्ध
थईने कमर कसी छे...हवे तेनी पर्यायमां मोह टकी शके नहि. मोहने जीतवानी आ रीत
चाले छे.
द्रव्य–गुण–पर्यायथी आत्माने जाणनार धर्मी विचारे छे के वर्तमान पर्यायमां
मने अरिहंत जेवुं केवळज्ञान जोके प्रगट नथी पण द्रव्य–गुणमां शक्तिपणे तो हुं
अरिहंत जेवो ज परिपूर्ण छुं, मारा पूर्णस्वभावना अवलंबने मारी पर्याय पण पूर्ण
शुद्ध अरिहंत जेवी ज थई जशे. आम स्वशक्तिनो निर्णय करीने अंतरस्वभावमां
झंपलावे छे, एटले के पर्यायने द्रव्यस्वभावमां एकाग्र करे छे त्यां तत्क्षण शुद्धोपयोग
वडे मोहनो नाश थईने अपूर्व सम्यग्दर्शन थाय छे. अनंता जीवो आ रीते सम्यग्दर्शन
करीने, मोहनो क्षय करीने, मोक्ष पाम्या छे. अनंता तीर्थंकरोए आवो ज मोहक्षयनो
उपदेश आप्यो छे.
अहा, द्रव्य–गुण–पर्यायरूप वस्तुस्वरूपनो अलौकिक उपदेश अरिहंतदेवना
शासनमां ज छे,–तेने जाणतां मोहनो नाश थाय छे. सम्यग्दर्शननो उद्यम करनार जीव
पहेलां तो द्रव्य–गुण–पर्यायरूप निजआत्माने मनवडे ओळखी ल्ये छे,–हजी साथे विकल्प
छे एटले कह्युं के मनवडे जाणी ल्ये छे; हजी साक्षात् निर्विकल्प थईने नथी जाण्युं पण
ज्ञान साथे हजी विकल्प छे. आटलो निर्णय करीने पछी अंतरस्वभावमां झूके छे ने त्यारे
सम्यग्दर्शन थाय छे.
शरीरनी क्रियावाळो के रागवाळो आत्मा मानतो ते वात तो क्यांय छूटी गई;
अल्पज्ञ जेटलो छुं एवी बुद्धि पण न रही; हवे तो सामे अरिहंतनुं पूर्णस्वरूप लक्षमां
लईने तेनी साथे पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायने सरखावीने आत्मस्वरूपने निर्णयमां लीधुं
छे–“आवो निर्णय ते सम्यग्दर्शननी भूमिका छे.” मारुं द्रव्य केवुं? के अरिहंत भगवान
जेवुं चैतन्यमय मारुं द्रव्य छे; मारा गुणो केवा? के अन्वयरूप कायम रहेनारा
चैतन्यगुणो छे; अने व्यतिरेकरूप जे चैतन्यपरिणमन ते पर्यायो छे. ज्ञाननी पर्यायो
ज्ञानरूप छे. आम ज्ञानमय पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणतां स्वसन्मुखपरिणति
थाय छे, द्रव्य–गुण–पर्यायरूप आत्माने एक काळे ज जाणी लेतो ते जीव अंतर
चेतनस्वभावमां ज पर्यायने लीन करे छे, त्यां गुणगुणी भेदनी वासना पण रहेती
नथी. गुणभेद ने पर्यायभेद बंनेनुं लक्ष छोडीने एकला आत्माने ज अनुभवे छे. आवा
अनुभवकाळमां सम्यग्दर्शन थाय छे.