: मागशर : २४९प आत्मधर्म : ३३ :
वीतराग भगवाननो उपदेश एम छे के–जेम
नौका पोते तरवाना स्वभाववाळी छे तेम
ज्ञानस्वभावी आत्मा पोते तरवाना स्वभाववाळो
छे, एटले पोते ज पोतानो तारणहार छे.
भवसमुद्रने तरवा माटे तुं तारा स्वभावनुं ज
अवलंबन ले.–ए वात अहीं समजावे छे.
(सागरवाळा शेठश्री भगवानदासजीनी खास
मांगणीथी पू. गुरुदेवे त्रण वखत अष्टप्रवचनो
तारणस्वामीना साहित्य उपर कर्या, तेमांथी पहेला
आठ प्रवचनो ‘अष्टप्रवचन’ पुस्तकरूपे छपाई गया
छे; ने आ बीजा ‘अष्टप्रवचन’ तैयार थाय छे;
तेमांथी थोडोक भाग अहीं आप्यो छे.)
एकेक आत्मद्रव्यमां अनंत गुण छे, तेनी खबर वगर साचुं ध्यान के साधुपणुं
थाय नहीं. ‘साधु’ एटले शुद्धआत्माना साधक,–तेमां गौणपणे सम्यग्द्रष्टि पण आवी
जाय छे; ते अनंत गुणरूप पोताना आत्मद्रव्यने साधीने तेमां लीन थाय छे.
आत्मामां काळथी अनंत, संख्याथी अनंत ने सामर्थ्यथी पण अनंत गुणो छे. (–क्षेत्रे
अनंत नथी.)–आवा आत्माने धर्मी साधे छे. जीव ज्यारे निश्चयनय द्वारा पोताना
आवा आत्माने देखे छे त्यारे समताभाव जागे छे ने रागद्वेष छूटी जाय छे.
आत्मज्ञाननी साथे वीतरागभावरूप समभाव आव्यो ते ज साचो सहकार छे; तेमां
ज निश्चय महाव्रत आवी जाय छे. रागादि भावो ते हिंसा छे, ने वीतरागभाव ते
परमार्थ अहिंसारूप निश्चय महाव्रत छे; ते ज सत्य–स्वरूप छे; तेमां ज परभावोनुं
ग्रहण न होवाथी ते अदत्त छे; ब्रह्मस्वरूपमां आचरणरूप ते ज ब्रह्मचर्य छे; ने तेमां
पोताना स्वरूप सिवाय