Atmadharma magazine - Ank 302
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९प आत्मधर्म : ३ :
आ जे बधाय भावो छे तेमां शरीरादि के रागादि ते हुं नथी, ज्ञानभाव ते ज हुं
छुं–एम जाणनारस्वरूपे ज पोते पोताने अनुभवमां लेतां आत्मज्ञान थाय छे. जेम
अरिहंतने ओळखतां आत्मा जणाय एम कह्युं; तेमां परम औदारिक दिव्य शोभावाळुं
शरीर ते कांई अरिहंतनी पर्याय नथी, ए तो जडपुद्गलनी पर्याय छे, ते पर्याय वडे
अरिहंतनो आत्मा नथी ओळखातो; ए ज रीते रत्नमणिनां छत्र–चामर–सिंहासन
वगेरे प्रातिहार्यो ते पण जडना संयोग छे, ते प्रातिहार्योनी शोभा वडे अरिहंतनो
आत्मा ओळखातो नथी, केमके ते कांई अरिहंतनी पर्याय नथी; अरिहंतदेवनी पर्याय
तो केवळज्ञानादिरूप छे;–जेमां रागादि नथी, आवी केवळज्ञानादि पर्याय वडे तथा तेमना
गुण अने द्रव्य वडे अरिहंतने ओळखतां ज्ञानस्वरूप आत्मा ओळखाय छे, एटले
जडना संयोगथी तथा परभावोथी भिन्न ज्ञानस्वरूप हुं छुं–एवुं भेदज्ञान तथा
सम्यग्दर्शन थाय छे. आ रीते ज्ञानस्वरूप आत्मानी प्रतीत थई त्यारे अरिहंतना
आत्मानी ओळखाण थई; ने त्यारे मोक्षमार्ग शरू थयो.
तेम अहीं पण कहे छे के दरेक आत्मा ज्ञानस्वरूप छे; ते ज्ञानस्वरूप आत्माने
ज्ञानपणे न अनुभवतां रागादिपणे के जडपणे मानीने ज्ञानने भूली जाय छे, तेथी
अज्ञानीने शुद्ध आत्मानी सिद्धि थती नथी, ते तो अशुद्ध आत्माने ज अनुभवे छे.
अनेक भावोनुं (ज्ञान, राग ने संयोगोनुं) मिश्रपणुं होवा छतां तेमां जे ज्ञानपणे
अनुभवाय छे ते ज हुं छुं, ने ए सिवाय बीजा भावो ते हुं नथी–आम भेदज्ञानमां
प्रवीण थईने निःशंकपणे अन्य समस्त भावोथी भिन्न शुद्धज्ञानस्वरूपे ज पोताने
अनुभवे छे त्यारे ज तेमां एकाग्र थईने आत्मा पोतानी शुद्धताने साधे छे. आ रीते
साध्यनी सिद्धि थाय छे.
कोई पदार्थने जाणतां तेमां पोतानुं ज्ञान तो मुख्य छे ज; ज्ञानना अस्तित्व
वगर ज्ञेयनुं अस्तित्व जाणी शकाय ज नहि. ज्ञान वगर ज्ञेय शेमां जणाय? आम
ज्ञाननी हयातीमां ज ज्ञेयनुं अस्तित्व जणातुं होवा छतां, अज्ञानी ते ज्ञानने ज भूली
जाय छे.–अरे भाई, ज्ञेयोने जाणतां ज्ञानस्वरूपे तारुं अस्तित्व छे–तेने तुं केम भूली
जाय छे! अरे, जाणनारे परने जाण्यां पण पोते पोताने ज भूल्यो! श्रीमद् राजचंद्रजी
एक पत्रमां ज्ञाननी मुख्यता बतावतां लखे छे के–(बीजी आवृत्ति पृ. २प०) :
“कोई पण जाणनार, क्यारे पण, कोई पण पदार्थने पोताना