Atmadharma magazine - Ank 302
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म मागशर : २४९प
घटे छे....सर्वथी प्रथम रहेनारो जे पदार्थ, ते जीव छे; तेने गौण करीने एटले तेना
विना कोई कंई पण जाणवा ईच्छे, तो ते बनवायोग्य नथी; मात्र ते ज मुख्य होय
तो ज बीजुं कांई जाणी शकाय.”
आ रीते जीवनुं ऊर्ध्वपणुं छे, मुख्यपणुं छे, तेना
अस्तित्वमां सर्व पदार्थो जाणी शकाय छे. बधाने जाणनारो पोते, छतां पोते पोताने
भूली रह्यो छे!
घट पट आदि जाण तुं तेथी तेने मान;
(पण) जाणनारने मान नहि, कहिये केवुं ज्ञान!
(आत्मसिद्धि)
ज्ञानस्वरूप हुं नथी, ने पदार्थो मने जणाय छे–ए वात केवी? पदार्थो जणाय छे,
तो पहेलां तेने जाणनारो तुं ज्ञानस्वरूपे सत् छो–एम तारुं अस्तित्व जाण.
अहा, दरेक जीवने पर्याये पर्याये ज्ञान तो प्रकाशी ज रह्युं छे; पण ज्ञानने
ज्ञानपणे न ओळखतां रागपणे ने जडज्ञेयोपणे कल्पी ल्ये छे, हुं ज्ञानस्वरूप छुं एम
नथी अनुभवतो पण रागादिपणे ज पोताने अनुभवे छे.–आ रीते ‘अनुभूतिरूप जे
ज्ञान छे ते ज हुं छुं’–एवुं आत्मज्ञान नहि होवाथी ते अज्ञानीने ज्ञानस्वरूपमां
एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग सिद्ध थतो नथी, ते तो रागादिमां ज एकाग्रपणे अज्ञानभावथी
संसारमां रखडे छे.
ज्ञान वगरनो क्यो जीव होय? कोई जीव ज्ञान वगरनो होय नहि, ते ज्ञानपणे
पोते पोताने न ओळखतां अन्य भावोपणे ज पोताने मानवो ते अनात्मज्ञान छे–
मिथ्यात्व छे, अप्रतिबुद्धपणुं छे. ते केम टळे तेनी आ वात छे.
ज्ञानस्वरूप अनुभव ते ज हुं छुं–एम शुद्धात्माना सेवन वडे अज्ञान टळीने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थाय छे. आ ज्ञेयपणे जणातां अनेक भावोमां जे ज्ञाननी
रचना करनार छे ते ज हुं छुं; रागनी रचना करनारो हुं नहि, जडनी–भाषानी–शरीरनी
रचना करनारो हुं नहि; तेने जाणनारूं जे ज्ञान, ते ज्ञानने रचनारो ज्ञानस्वरूप हुंं छुं–
एम परभावोथी पृथक्करण करीने ज्ञानस्वरूपे पोते पोताने अनुभवमां लेवो तेनुं नाम
ज्ञाननुं सेवन छे, ते जीवराजानी सेवा छे, ने ते ज मोक्षमार्ग छे.