पोताना ज्ञानगुणथी आत्मा कदी जुदो तो नथी, ज्ञान साथे तादात्म्य ज छे; पछी
ज्ञाननी सेवानो उपदेश केम आपो छो! जुओ, आ प्रश्नना उत्तरमां आचार्यदेव
वस्तुस्वरूप स्पष्ट करीने समजावे छे: भाई! ज्ञानगुण साथे आत्मा सदा तादात्म्य छे–
ए साचुं, छतां तेणे ज्ञानने एकक्षण पण सेव्युं नथी. केम नथी सेव्युं? कारण के ज्यारे
पर्यायने ज्ञान साथे तादात्म्य करे त्यारे ज्ञानने सेव्युं कहेवाय. पर्याय तो राग साथे
तादात्म्य थईने रागने ज सेवे छे–रागने ज अनुभवे छे; ज्ञानमां तन्मय परिणमतो
नथी ने ज्ञानने अनुभवतो नथी; माटे ज्ञानने सेवतो नथी.
खरुं, पण तेमां कांई ज्ञानने सेववारूप क्रिया नथी, ज्ञाननी सेवारूप क्रिया क्यारे थाय?
के यथार्थ भेदज्ञाननो उपदेश पामीने अंदरमां राग अने ज्ञाननी भिन्नताना विवेक वडे
आत्माने यथार्थस्वरूपे जाणे ने तेमां तन्मय थईने परिणमे,–आवुं परिणमन थाय तेनुं
नाम ज्ञाननी सेवा छे; ने ज्ञानना सेवनरूप आ क्रिया ते पर्याय छे. आवी पर्याय
प्रगट्या वगर ज्ञाननी सेवा थाय नहीं, ज्ञानस्वभाव तो सदाय छे, ने पर्याय ते तरफ
ढळीने तेमां तद्रूप परिणमी, तेनुं नाम ज्ञाननी सेवा छे, ते ज मोक्षमार्ग छे.
कहेवाय; त्यारे शुद्धआत्मानी सिद्धि थाय. शुद्धात्माने सेववारूप क्रिया ते द्रव्यगुणमां न
होय, ते तो पर्यायमां होय.