: ६ : आत्मधर्म : मागशर : २४९प
पर्याय अंतरमां ज्ञानस्वभाव तरफ झूकीने तन्मय थवाने बदले रागादि
परभावोना ज वेदनमां तन्मयपणे वर्ते तो ते पर्याय स्वयं विकाररूप–अज्ञानरूप छे,
तेमां ज्ञानसेवननी क्रिया नथी पण अज्ञाननुं सेवन छे. ज्ञाननुं सेवन तो त्यारे ज थाय
के ज्यारे ज्ञानीनो यथार्थ उपदेश पामीने जीव पुरुषार्थवडे प्रतिबुद्ध थाय, ने रागथी
अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूपे ज पोताने जाणीने अनुभव करे. आवो अनुभव ते ज्ञाननी
क्रिया छे, ते मोक्षमार्ग छे, ते अपूर्व ज्ञानक्रिया नवी प्रगटे छे. ज्यारे पर्यायमां आवो
ज्ञानभाव प्रगट्यो त्यारे ज ‘मारा द्रव्य–गुण पण आवा ज्ञानस्वरूप ज छे’ एम खरी
ओळखाण थई. द्रव्य–गुण शुद्ध छे–एम ओळखे त्यां पर्याय पण तेमां तद्रूप थईने शुद्ध
थाय ज. अंतरमां तद्रूप थईने पर्यायमां शुद्धता थया वगर द्रव्य–गुणनी शुद्धताने
ओळखी कोणे? ओळखवारूप काम तो पर्यायमां थाय छे. आ रीते द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणे एकरूप थईने शुद्ध ज्ञानभावरूपे परिणम्या त्यारे आत्मा ‘शुद्ध’ थयो, त्यारे
ज्ञाननी सेवा थई, त्यारे ज ज्ञानीनी परमार्थ उपासना थई, त्यारे धर्मनी क्रिया थई, ने
मोक्षमार्ग थयो. आ रीते ज्ञाननी सेवा वडे शुद्धआत्मानी सिद्धि थाय छे.
सिंहनो मार्ग
सिंह जे मार्गे चाल्यो, तेनी रज ऊडीने घासने चोंटी, ते
घास ऊभुं ऊभुं सुकाई जशे पण हरणियां तेने चरशे
नहि....सिंहनी गंध पासे हरणियां आवी न शके.....
तेम दिव्यध्वनिरूपी सिंहनादमां चैतन्यनो जे स्वभाव
आव्यो, ते स्वभावनो जेने स्पर्श थयो ते जीवनी परिणतिमां
आठ कर्मरूपी हरणियां नहि आवी शके....तेनी परिणति
चैतन्यने स्पर्शीने एवी वीतराग थशे के तेनी गंधथी पण आठ
कर्मरूपी हरणियां दूर भागशे.
आवो छे भगवान वीरनो सिंहमार्ग!
(ज्यां आत्मा जागे त्यां कर्मो भागे.)