Atmadharma magazine - Ank 303
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 10 of 49

background image
: पोष : २४९प आत्मधर्म : ७ :
देहथी भिन्न चैतन्यभावे शोभी रहेलो एवो
तारो आत्मा संतो तने देखाडे छे, ते देखीने हे जीव!
तुं प्रसन्न था...आनंदित था.
रे भाई, तुं कोईपण रीते तत्त्वनो कौतूहली था. हितनी शिखामण आपतां
आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! गमे तेम करीने तुं तत्त्वनो जिज्ञासु था..ने देहथी
भिन्न आत्मानो अनुभव कर. देह साथे तारे एकता नथी पण भिन्नता छे...तारा
चैतन्यनो विलास देहथी जुदो छे. माटे तारा उपयोगने पर तरफथी छोडीने
अंतरमां वाळ.
परमां तारुं नास्तित्व छे माटे तारा उपयोगने पर तरफथी पाछो वाळ.
तारा उपयोगस्वरूप आत्मामां परनी प्रतिकूळता नथी. मरण जेटलुं कष्ट (–बाह्य
प्रतिकूळता) आवे तोपण तेनी द्रष्टि छोडीने अंतरमां जीवता चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि
कर. “
मृत्वा अपि एटले के मरीने पण तुं आत्मानो अनुभव कर”–आम कहीने
आचार्यदेवे शिष्यने पुरुषार्थनी प्रेरणा आपी छे. वच्चे कंई प्रतिकूळता आवे तो
तारा प्रयत्नने छोडी न दईश. परंतु मरण जेटली प्रतिकूळता सहन करीने पण तुं
आत्मानो ताग लेजे...तेनो अनुभव करजे. मारे मारा आत्मामां ज जवुं छे...तेमां
वच्चे परनी डखलगीरी केवी? प्रतिकूळता केवी? बहारनी प्रतिकूळतानो आत्मामां
अभाव छे–एम उपयोगने पलटावीने आत्मामां वाळ,–आम करवाथी पर साथे
एकताबुद्धिरूप मोह छूटी जशे...ने तने परथी भिन्न तारुं चैतन्यतत्त्व आनंदना
विलाससहित अनुभवमां आवशे.
३८ गाथा सुधी परथी भिन्न शुद्धजीवनुं स्वरूप घणाघणा प्रकारे स्पष्ट करीने
समजाववा छतां जे नहि समजे अने देहादिने आत्मा मानशे, तेने आचार्यदेव कडक
संबोधन करीने समजावशे के, अमे आटलुं आटलुं समजाव्युं छतां जे जीव देहने–कर्मने
तथा रागने ज आत्मानुं स्वरूप माने छे ते जीव मूढ छे, अज्ञानी छे, पुरुषार्थहीन छे.
परने ज आत्मा मानी मानीने ते आत्माना पुरुषार्थने हारी बेठो छे. रे पशु जेवा