: ६ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
शरीरने ज आत्मा माने ए तो स्थूळ भूल छे ज; परंतु पर तरफना रागभावने
जे उपयोग साथे एकमेक समजे छे, रागथी भिन्न उपयोगने नथी अनुभवतो, तो ते
पण खरेखर अजीवने ज आत्मा माने छे, जीवना उपयोगगुणने ओळखीने जीवनां
गुणोनी स्तुति करतां तेने नथी आवडतुं, एटले सर्वज्ञ भगवाननी पण परमार्थ स्तुति
करतां तेने आवडतुं नथी. भगवानना आत्माना खरा गुण (रागथी जुदा) शुं छे तेने
तो ते ओळखतो नथी, तो ते भगवानना गुणनी ओळखाण वगर तेमनी साची स्तुति
क्यांथी करी शकशे? भगवानना गुणनी साची स्तुति सम्यग्द्रष्टि ज करे छे. भगवान
जेवा पोताना गुणने पण तेणे ओळख्या छे.
आचार्यदेव आत्मगुणोनी ओळखाण करावीने कहे छे के भाई, आत्मा अने
शरीरनी एकत्वबुद्धिने तुं छोड.....केमके आत्माना एक्केय गुण शरीरमां नथी, आत्मा
कदी पोतानुं उपयोगपणुं छोडीने शरीरपणे थतो नथी. आत्मा अने शरीर सदाय अत्यंत
जुदा ज छे.
जड–चेतननुं आटलुं आटलुं स्पष्ट भेदज्ञान कराववा छतां जे नथी समजतो, ने
शरीरादिने ज आत्मापणे अनुभवे छे तेने तेनुं अज्ञान छोडाववा आचार्यदेव कहे छे के
हे दुरात्मा! तारी आ पशु जेवी प्रवृत्तिने तुं छोड.....छोड! जेमां आत्मा हणाय छे एवी
आ मिथ्याबुद्धिने तुं छोड! जेम पशुओने लाडवा अने घास वच्चे विवेक नथी, बंनेने
भेळसेळ करीने खाय छे, तेम तुं पण उपयोगने अने शरीरने एकमेक अनुभवे छे, ते
दुर्बुद्धि छोडी दे. चैतन्यस्वभावने भूलीने शरीरने पोतानुं मान्युं, एटले आत्माने जड
मान्यो, तेमां तारा चैतन्यस्वभावनी हिंसा थाय छे; आवी आत्महिंसाने तुं छोड, ने
देहथी भिन्न शुद्ध उपयोगस्वरूप आत्मा छे तेने अनुभवमां ले.
अत्यंत पुरुषार्थनी जागृतिपूर्वक भेदज्ञान करीने आत्मानो अनुभव करवा माटे
हजी फरी फरी आचार्यदेव जोरदार उपदेश आपे छे...ते सामे पाने वांचोजी
पहेलुं सुख ते आतमज्ञान,
बीजुं सुख ते चारित्रवान;
त्रीजुं सुख वीतरागीध्यान,
उत्तम सुख छे केवळज्ञान.
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घडीक विचार, तारुं स्वरूप;
तो तुं पामीश, सुख अनुप.