: ८ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
मूढ! तुं समज रे समज! भेदज्ञान करीने तारा आत्माने परथी जुदो जाण...रागथी जुदा
चैतन्यनो स्वाद ले.
–आ रीते जेम माता बाळकने शिखामण आपे तेम आचार्यदेव शिष्यने अनेक
प्रकारे समजावे छे...तेमां तेना हितनो ज आशय छे.
आचार्यदेव कहे छे के भाई! जडनी क्रियामां तारो धर्म गोतवो मुकी दे. आ
चैतन्यमां तारो धर्म छे ते कोई दिवस जड थयो नथी. जड ने चैतन्य बंने द्रव्यना
भागला पाडीने हुं तने कहुं छुं के आ चैतन्यद्रव्य ज तारुं छे. माटे हवे जडथी भिन्न
तारा शुद्ध चैतन्यतत्त्वने जाणीने तुं सर्व प्रकारे प्रसन्न था...तारुं चित्त उज्जवळ करीने
सावधान था...अने “आ स्वद्रव्य ज मारुं छे” एम तुं अनुभव कर. अहा! आवुं
चैतन्यतत्त्व अमे तने देखाड्युं... हवे तुं आनंदमां आव...प्रसन्न था!
जेम बे छोकरा कोई वस्तु माटे बाझे तो माता वच्चे पडीने भाग पाडी आपे छे
ने समाधान करावे छे. तेम अहीं आचार्यदेव जड–चेतनना भाग पाडीने, बाळक जेवा
अज्ञानीने समजावे छे के ले, आ तारो भाग! जो...आ चैतन्य छे ते तारो भाग छे ने
आ जड छे ते जडनो भाग छे. तारो चैतन्य भाग एवो ने एवो आखेआखो शुद्ध छे,
तेमां कांई बगडयुं नथी; माटे तारो आ चैतन्य भाग लईने हवे तुं प्रसन्न
था...आनंदित था... तारा मननुं समाधान करीने तारा चैतन्यने आनंदथी
भोगव...तेना अतीन्द्रियसुखना स्वादनो अनुभव कर.
अज्ञानीनुं अज्ञान केम टळे, ने तेने चैतन्यना सुखनो अनुभव केम थाय, ते
माटे आचार्यदेव उपदेश आपे छे. कडक संबोधन करीने नथी कहेता पण कोमळ संबोधन
करीने कहे छे के हे वत्स! शुं आ जड देह साथे एकमेकपणुं तने शोभे छे? ना, ना. तुं तो
चैतन्य छो...माटे जडथी जुदो था...तेनो पाडोशी थईने तेनाथी भिन्न तारा चैतन्यने
देख. दुनियानी दरकार छोडीने तारा चैतन्यने देख. जो तुं दुनियानी अनुकूळता के
प्रतिकूळता जोवा रोकाईश तो तारा चैतन्यभगवानने तुं नहि जोई शके, माटे दुनियानुं
लक्ष छोडी, तेनाथी एकलो पडी अंतरमां तारा चैतन्यने जो...अंतर्मुख थतां ज तने
खबर पडशे के चैतन्यनो केवो अद्भुत विलास छे?