: पोष : २४९प आत्मधर्म : ९ :
जे गुणोने अने पर्यायोने
पामे – प्राप्त करे ते द्रव्य
– अथवा –
गुणो अने पर्यायो वडे जे
पमाय – प्राप्त कराय ते द्रव्य
(प्रवचनसार गा. ८७ ना प्रवचनमांथी)
गुरुदेव कहे छे: ‘घणुं सहेलुं...छतां...घणुं सरस’
अहा, वीतरागमार्गमां जिनेन्द्रदेवे अलौकिक वस्तुस्थिति
प्रसिद्ध करी छे. द्रव्य–गुण–पर्यायनुं यथार्थ स्वरूप ओळखतां
आखा जगतनी व्यवस्था ओळखाई जाय छे. द्रव्य–गुण–पर्याय
स्वरूप वस्तु स्वतंत्र छे; गुण–पर्यायोनो संबंध पोताना द्रव्य
साथे छे, बीजा साथे नथी. आवुं स्वरूप ओळखे तो पोताना
गुण–पर्याय पोताना द्रव्यमां शोधे, एटले स्वसन्मुख थाय, ने
परमां पोताना गुण–पर्याय न शोधे एटले पर साथे एकताबुद्धि
दरेक द्रव्य पोताना गुण–पर्यायोने प्राप्त करे, पण बीजाना गुण–पर्यायने कोई
द्रव्य प्राप्त करे नहि. आत्मद्रव्य पोताना ज्ञानादिगुणोने तथा केवळज्ञानादि पर्यायोने
प्राप्त करे, पण आत्मद्रव्य शरीरादि कोई अन्य गुण–पर्यायोने प्राप्त करे नहि, तेनाथी
तो सदाय जुदो ज छे. पोते कर्ता थईने पोताना गुण–पर्यायोने प्राप्त करे, पण
बीजाना गुण–पर्यायोनो कर्ता आत्मा थई शके नहि, तेने पोतामां प्राप्त करी शके
नहि.
अने आत्माना गुण–पर्यायोने आत्मा पोते प्राप्त करे छे, कोई बीजुं तेने
प्राप्त करतुं नथी, अथवा कोई बीजा वडे ते प्राप्त कराता नथी. परद्रव्य (निमित्त
वगेरे) होय तो आत्मा पोताना गुण–पर्यायोने पामी शके एवी पराधीनता नथी,
स्वयं आत्मद्रव्य