: पोष : २४९प आत्मधर्म : १३ :
* * * त्रण रत्नन
किंमत समजीए * * *
संसारमां अनंतानंत जीवोमांथी असंख्यातजीवो ज मनुष्य होय छे एटले
त्रिराशीने हिसाबे गणतां अनंतजीवोमांथी मात्र एकजीव मनुष्य थाय.
आवुं दुर्लभ मनुष्यपणुं छे. द्रष्टिगोचर क्षेत्रमां रहेला करोडो–अबजो मनुष्योमां
पण मोटा भागना मनुष्यो तो मांस–दारू ने मध जेवा अभक्ष्य–सेवनना पापसमुद्रमां
एवा डुबेला छे के जेने धर्मना श्रवण जेटला विशुद्धपरिणाम ज नथी.
हवे बाकी रहेला थोडाघणा मनुष्योमांथी पण मोटा भागने तो कुदेव–कुगुरु–
कुधर्मना सेवननुं एवु भूत वळग्युं छे के कोई पण जातनी विवेकबुद्धि वगर गांडानी
माफक गमे ते क्रियामां धर्म मनावी रह्या छे. अरे, ज्यां तीर्थंकर भगवानना मार्गनी
धमधोकार प्ररूपणा चाले छे एवा सोनगढनी नजीकमां तेमज सौराष्ट्रना अन्य शहेरोमां
ने बीजे पण धर्मना नामे लाखो लोकोने गृहीत–मिथ्यात्वनुं जे भूत वळगेलुं देखाय छे
त्यारे एम थाय छे के अरेरे! आ जीवो मनुष्यपणुं तो पाम्या पण एमने पंचपरमेष्ठी
भगवाननुं नाम पण सांभळवा न मळ्युं...गृहीतमिथ्यात्वना भूते एमने भरमाव्या.
धन्य छे जगतमां पंचपरमेष्ठी भगवंतो,–के जेमनी भक्तिरूप मंत्रना प्रभावे
गृहीतमिथ्यात्वनुं भूत आत्मानी पासे पण आवी शकतुं नथी.
वहाला साधर्मी बंधुओ! जगतमां अनेकविध कुधर्मो तो सदाय रहेवाना ज छे
केमके नरकादि गति पण सदाय भरेली ज रहेवानी छे, आपणे एवा कुधर्मो साथे कांई
नीस्बत नथी. परंतु कुधर्मना दरियानी वच्चे पण आपणने भवसमुद्रथी तारीने
आत्मानो आनंद देनारा जे “त्रण रत्नो” मळ्या छे–ते जगतमां सर्वश्रेष्ठ छे. आपणने
मळेला ए वीतरागी रत्नोने आपणे ओळखीए...जीवनी जेम एनुं जतन करीए, ने
एमना जेवुं आपणुं जीवन बनावीए..ते माटे जराय प्रमादी न थईए, ने परम
बहुमानपूर्वक आ साचा त्रण रत्नने सेवीए...एवी भावनाथी अहीं प्रासंगिक उल्लेख
कर्यो छे. आपणा वीतरागी अर्हन्तदेव, आपणा वीतरागी निर्ग्रंथ गुरुओ अने आपणा
वीतरागीशास्त्रो ए जगतमां सर्वश्रेष्ठ, सत्य अने आत्महित माटे रत्नत्रय देनारा
छे...तेनुं ज सेवन करो...ने ए सिवाय बीजा मार्ग तरफ भूलेचूके जराय झांखीने पण न
जुओ.
जयवंत वर्तो ए ‘त्रण रत्नो’.......के जे ‘त्रणरत्नना दातार’ छे.