: १४ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
धर्मात्मा स्वभाव उपर
द्रष्टिना बळे ज्ञाने पोषे छे
तारणस्वामीना साहित्य उपर पू. गुरुदेवना अष्टप्रवचन
(बीजा) मांथी थोडोक सार गतांकमां आपेलो, तेनो बीजो भाग अहीं
आपीए छीए. काचबी पोताना ईंडाने मात्र द्रष्टिवडे ज सेवे छे–ए
द्रष्टांत द्वारा धर्मात्मानी शुद्धद्रष्टिनुं महत्त्व बताव्युं छे, ते वात पू.
गुरुदेवे घणी सरस रीते आ प्रवचनमां समजावी छे.
श्रावकाचारनी गा. ४००मां काचबीनुं द्रष्टांत आपीने कहे छे के जेम काचबी
द्रष्टिवडे ज ईंडाने सेवे छे, तेनी नजर ईंडा उपर चोंटी छे. निरंतर तेनुं ध्यान रहे छे ने
ए रीते ईंडुं वधे छे, तेम धर्मात्माए पांचईन्द्रियो तरफथी उपयोगने संकोची लीधो छे ने
अंतरमां शुद्धबोधिबीजस्वभाव उपर सम्यग्दर्शनरूपी द्रष्टिने एकाग्र करी छे, नजरनी
मीट शुद्धआत्मा उपर मांडी छे, आवी शुद्ध द्रष्टिना बळे तेनुं ज्ञान वृद्धिगत थतुं जाय छे.
अनेक प्रकारनुं पठनपाठन, अनेक प्रकारनी दानादि क्रियाओ, तेना वडे दर्शनशुद्धि थती
नथी, अने दर्शनशुद्धि वगरनी ते बधी क्रियाओ वृथा छे. शुद्धआत्मा उपर द्रष्टि होवा
छतां धर्मीनेय भगवाननी पूजा–भक्ति वगेरे शुभभावो आवे छे. पण तेने ते
मोक्षमार्ग मानता नथी. पुण्यबंधनुं कारण जाणे छे. शुद्धात्माना अनुभवना प्रतापे तेनुं
ज्ञान वधतुं जाय छे.–बहारनुं जाणपणुं वधवानी आ वात नथी पण अंदर स्वभावने
पकडवानी ज्ञानशक्ति वधती जाय छे. शास्त्रादिनुं जाणपणुं ते व्यवहारुं ज्ञान छे, पोताना
स्वभावने जाणवो ते परमार्थज्ञान छे, ने ते स्वभावना अवलंबने ज केवळज्ञान थाय
छे.
जुओ, ‘श्रावकाचार’ मां श्रावकने माटे पण आवो ज उपदेश आप्यो के हे
श्रावक! तारुं ज्ञान पण अंदरथी वधे छे, बहारथी नथी आवतुं द्रष्टिना प्रभावथी
ज्ञाननी वृद्धि थाय छे. जेम काचबीनी नजर ईंडा उपर छे तेम सम्यग्द्रष्टिनुं लक्ष
ज्ञानस्वभाव उपर छे. जेना आत्मामां सम्यग्दर्शन विद्यमान छे ते सम्यकद्रष्टिरूपी
चक्षुद्वारा श्रुतज्ञानरूप ईंडाने पोषीने स्वयं केवळज्ञान प्रगट करे छे. जुओ, सम्यग्द्रष्टि
साधुने शास्त्र भण्या वगर अंतरथी ज्ञानस्वभावना अवलंबने बार अंगनुं ज्ञान उघडी
जाय छे, पुस्तकोना भणतरथी कांई बार अंगनुं ज्ञान न खीले. पंखी तो