Atmadharma magazine - Ank 303
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
छे, तेम बारअंग कांई पुस्तक वांचीने नथी भणाता, ए तो अंदरथी चैतन्यदरियो
उल्लसीने बारअंगनुं ज्ञान खीली जाय छे. अहा, अगाध चैतन्यसागर पासे तो
बारअंगनुं ज्ञान पण एक नाना तरंग जेवुं छे; एनाथी अनंतगणी ताकात
केवळज्ञानमां छे. पण ए ज्ञान बहारना साधनोथी नथी थतुं. जेम बहारथी पाणी
रेडीने दरियामां भरती लावी शकाती नथी, दरियो पोते मध्यबिंदुथी उल्लसतां
भरती आवे छे. तेम चैतन्यसमुद्र–आत्मामां ईन्द्रियो द्वारा के रागद्वारा ज्ञाननी
भरती लावी शकाती नथी, ज्ञान पोते पोतामां एकाग्र थईने मध्यबिंदुथी उल्लसतां
केवळज्ञाननी भरती आवे छे; अथवा सम्यग्दर्शनरूपी चंद्रमावडे श्रुतनो सागर
उछळे छे. अने जेम सूर्यनो तीव्रताप पण समुद्रनी भरतीने रोकी शकतो नथी, तेम
प्रतिकूळताना गंज पण ज्ञानना विकासने रोकी शकता नथी, शुद्धद्रष्टिना बळे पोते
पोतामां एकाग्र थईने ज्ञानदरियो उछळवा लाग्यो तेने कोई रोकी शके नहि.
आत्मानी शुद्धद्रष्टि वगरना ज्ञानने ज्ञान कहेता नथी. केमके तेनी एकाग्रता ज्ञानमां
नथी, ते तो रागमां एकाग्र थईने वर्ते छे. एवा बहारना जाणपणानी मोक्षमार्गमां
कांई किंमत नथी. जे ज्ञान अंतर्मुख थईने पोताना आत्माने न साधे एनी शी
किंमत!–एने ते ज्ञान कोण कहे? शुद्धद्रष्टिवडे ज ज्ञाननो पार पमाय छे, ने
मोक्षमार्ग सधाय छे. दर्शनहिन जीव तप वगेरे क्रिया करीने पण (
हिंडंति संसारे)
संसारमां ज भमे छे–एम तारणस्वामीए पण कह्युं छे.
आत्मा जिनस्वरूप छे, अरिहंत जेवो ज एनो स्वभाव छे; आवा
विमलस्वभावना अवलंबन वडे कर्मबंधननो क्षय करीने आत्मा स्वयं अनंत
चतुष्टयसहित सिद्धि–संपदा प्राप्त करे छे.
जुओ, आ शुद्धउपदेश! अहो! सिद्ध जेवो एक प्रकारनो मारो स्वभाव छे,
सिद्धमां ने मारामां कांई फेर नथी;–आवो शुद्धउपदेश भगवाने आप्यो छे. (–‘सर्व
जीव छे सिद्धसम........जे समजे ते थाय’) श्रीमद्राजचंद्र पण कहे छे के–
शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम
बीजुं कहीए केटलुं? कर विचार तो पाम.
आवा पोताना शुद्ध स्वरूपने ओळखवुं ते भगवानना उपदेशनो सार छे;
सिद्धमां जेम रागादि नथी तेम मारा स्वभावमां पण रागादि नथी; सिद्ध
भगवानने स्वभावना आश्रये कर्म–बंधन छूटीने सिद्धदशा प्रगट थई छे, तेम मने
पण मारा