: पोष : २४९प आत्मधर्म : १७ :
स्वभावना आश्रये सिद्धदशा थाय छे. आ ज सिद्धपद पामवानी रीत छे. आवा
मार्गनो उपदेश करवो ते साचो उपदेश छे. बाकी अज्ञानी जीव लोकोनी
अनुकूळता मेळववा खातर रागना पोषणनो उपदेश आपे छे एमां तो
जनरंजननी कथा छे, जनरंजन माटेनी विकथा छे. एवा उपदेशथी लाभ
मनावनारा जीवो तो जिनद्रोही छे,–जिनशासनना वेरी छे. रागने मोक्षनुं साधन
कहेवुं ते तो सम्यग्दर्शनथी विरुद्ध एवी विकथा छे, ए वात आ उपदेशशुद्धसारमां
तारणस्वामीए लखी छे. रागथी धर्म मनावीने विकथा द्वारा जनरंजन करे छे
तेने जिनवरदेवे ‘जिनद्रोही’ कह्या छे, ते जिनमार्गना उपासक नथी पण द्रोह
करनारा छे, अने ते दुर्गतिमां पडे छे.
विज्ञानघन एवो जे आत्मा तेना ज्ञानथी जे रहित छे ते जीवो रागमां ज रक्त
वर्तता थका जनरंजन करे छे, पण आत्मरंजन–आत्माने केम राजी करवो तेनी तेने
खबर नथी, अने जिनमार्गना नामे गरबड चलावे छे, ते जिनमार्गना द्रोही छे. एनुं
फळ तो नरकादिनां महान दुःख छे. माटे एनाथी बचवा तुं सिद्ध जेवा तारा आत्माने
जाण–एम भगवाननो उपदेश छे.
(नोंध:– आ लेखमां आपवामां आवेल काचबीनुं द्रष्टान्त सौराष्ट्रमां प्रसिद्ध
नथी; पण बुंदेलखंडमां ते प्रकारनुं द्रष्टांत चालतुं हशे तेथी तारणस्वामीना पुस्तकमां
तेनो उल्लेख छे. द्रष्टांत द्वारा धर्मात्मानी द्रष्टि समजाववी ते तात्पर्य छे.)
‘‘पारसनाथ!’’
दसबार वर्षनी बे बहेनो; तेमां एकवार मोटी बहेने नानी
बहेनना हाथमां खावानी कंईक वस्तु आपी; नानी बहेन ते
हाथमां लेतां कंईक शब्द बोली; तेनी सामे मोटीबहेने पण ए ज
शब्द कह्यो, त्यारपछी नानी बहेने ते वस्तु खाधी. आ विधि
समजाणी नहि, एटले पूछतां खुलासो कर्यो के बंने बहेनो
‘पारसनाथ’ एम बोली हती. केमके ते बहेने एवो नियम राख्यो
छे के कंईपण वस्तु खातां के पाणी पीतां पण, पहेलां भगवाननुं
नाम पोते ल्ये, अने ते ज प्रमाणे सामी कोई व्यक्ति पण
भगवाननुं नाम ल्ये, त्यार पछी ज पोते खाय के पीए. कोईवार
पोते एकली होय ने सामे भगवाननुं नाम लेनार बीजुं कोई
हाजर न होय तो त्यांसुधी ते खाय–पीए नहि. ते मुंबईमां रहे छे.
आखा दिवसमां गमे त्यारे पाणी पीवुं होय तोपण ए रीते
परस्पर भगवाननुं नाम लईने ज पीए. केवी मजानी वात!