Atmadharma magazine - Ank 303
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
–आम सर्वथी जुदा, एक, शुद्ध, ज्ञानदर्शनमय, सदा अरूपी आत्माने हुं अनुभवुं
छुं. अने आवा मारा स्वरूपने अनुभवतो हुं प्रतापवंत वर्तुं छुं.
स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आत्माना अनुभवथी प्रतापवंत वर्तता एवा मने, माराथी
बाह्य वर्तता समस्त पदार्थोमां कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे
भासतुं नथी. माराथी बहार जीव अने अजीव, सिद्ध अने साधक एवा अनंत
परद्रव्यो पोतपोतानी स्वरूपसंपदा सहित वर्ते छे तो पण स्वसंवेदनथी प्रतापवंत
परिपूर्ण छे ते ज मने मारापणे अनुभवाय छे, मारी पूर्णतामां परद्रव्यनो एक
रजकणमात्र मने मारापणे भासतो नथी के जे मारी साथे (भावकपणे के ज्ञेयपणे)
एक थईने मोह उत्पन्न करे. जिनरसथी ज समस्त मोहने उखेडी नाख्यो छे;
निजरसथी ज समस्त मोहने उखेडी नांखीने–फरी तेनो अंकूर न उपजे ए रीते
तेनो नाश करीने मने महान ज्ञानप्रकाश प्रगट थयो छे. मारा आत्मामांथी मोहनो
नाश थयो छे ने अपूर्व सम्यग्ज्ञानप्रकाश खीली गयो छे एम हुं मारा स्वसंवेदनथी
निःशंकपणे जाणुं छुं. मारा आत्मामां शांतरस उल्लसी रह्यो छे...अनंत भव
होवानी शंका निर्मूळ थई गई छे ने चैतन्यना आनंदना अनुभव सहित महान
ज्ञानप्रकाश प्रगटी गयो छे.
आ रीते, श्रीगुरुवडे परम अनुग्रहपूर्वक शुद्धआत्मानुं स्वरूप समजाववामां
आवतां, निरंतर उद्यमवडे समजीने शिष्ये पोताना आत्मानो आवो अनुभव कर्यो. तेनुं
वर्णन कर्युं.
भाई! आ तो सर्वज्ञनो निर्ग्रंथ मार्ग
छे. जो तुं स्वानुभव वडे मिथ्यात्वनी गांठ न
तोड तो निर्ग्रंथ मार्गमां कई रीते आव्यो?
जन्म–मरणनी गांठने जो न तोडी तो निर्ग्रंथ
मार्गमां जन्मीने ते शुं कर्युं? भाई, आवो
अवसर मळ्‌यो तो एवो उद्यम कर के जेथी
आ जन्म–मरणनी गांठ तूटे ने अल्पकाळमां
मुक्ति थाय?