: ३७ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
भा व न ग र मां...भा व मं ग ल
ज्ञान छे ते मनने आनंदरूप करतुं प्रगट थाय छे
(महा सुद पांचमना रोज श्री जिनमंदिरना शिलान्यास प्रसंगे गुरुदेव
भावनगर पधार्या ते प्रसंगना मंगल प्रवचनमांथी. (समयसार कळश ३३)
“नमः समयसाराय” एवा मंगलपूर्वक
गुरुदेवे कह्युं के आ देहथी भिन्न आत्मा पोते
आनंदस्वरूप छे. जीव अने अजीवनी भिन्नताने
जाणतुं ज्ञान, ते आत्माने आनंदरूप करतुं प्रगट
थाय छे. भेदज्ञान थतांवेंत जीव आह्लादित थाय
छे.
भाई, अनादिनुं तारुं तत्त्व देहथी भिन्न
आनंदस्वरूप छे. आवा आत्मानुं ज्ञान ते ज
साचुं ज्ञान कहेवाय छे. ज्ञाननी संपदावाळो
आत्मा छे, तेणे पोताना स्वरूपनुं ज्ञान कदी नथी
कर्युं. श्रीमद्राजचंद्र पण कहे छे के–
‘जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःख अनंत,
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत...रे
गुणवंता ज्ञानी...अमृत वरस्या छे पंचमकाळमां.
भाई, आ मनुष्यजीवन तो क्षणमां पूरुं थई
जतुं देखाय छे. आ देहनां रजकणो तो रेतीनी
जेम रखडशे. देह तो पुद्गलनी रचना छे; ने
आत्मा तो ज्ञानआनंदस्वरूप छे. एवा आत्माने
जाणतां आनंदरूप अमृत वरसे छे, ते मंगल छे.
आत्माना आनंदनो स्वाद जेमां न आवे तेने
भगवान धर्म कहेता नथी. धर्मनो पंथ आ छे के
ज्ञानमूर्ति आत्माने स्पर्श करीने पुण्य–पापथी
भिन्न ज्ञानस्वरूपना अनुभववडे आनंद थाय.
सर्वज्ञ परमेश्वरे पूर्ण ज्ञान ने आनंद प्रगट
कर्या, तेओ कहे छे के आवा ज्ञान ने आनंद
आत्माना स्वभावमां छे ते ज प्रगट्या छे,
बहारथी नथी आव्या. स्वभावमां ज्ञान ने
आनंद भरेला ज छे. जेम गोळ गळपण
वगरनो होय नहि. अग्नि उष्णता
वगरनो होय नहि. अफीण कडवाश
वगरनुं न होय. एम दरेक वस्तुमां
पोतपोतानो स्वभाव होय छे; तेम आत्मा
पण पोताना ज्ञान आनंद स्वभावथी
भरपूर छे. आवा आत्मानुं ज्ञान एवी
प्रतीति उपजावे छे के देह अने राग
माराथी भिन्न छे; आवी प्रतीति आनंद
सहित प्रगटे छे.
आत्मानो आवो अशरीरी चिदानंद
स्वभाव, तेने भूलीने संसारमां चार
गतिनां शरीरो धारण करवा ए तो शरम
छे. आत्मामां आनंद छे तेने बदले देहमां
ने रागमां आनंदने शोधे छे, ए अविवेक
छे. रागने के शरीरने तो कांई खबर नथी,
के पोते कोण छे? जीवना ज्ञानमां ज ए
जाणवानी ताकात छे; ज्यारे ते अमे जाणे
छे के हुं तो चैतन्य छुं, मारो स्वांग तो
ज्ञानरूप छे, रागादि ते मारो खरो स्वांग
नथी, ने देह ते पण मारो स्वांग नथी, ते
जडनो स्वांग छे, आम बंनेनी भिन्नता
जाणतुं ज्ञान पोते आनंदरस सहित प्रगटे
छे.–आवुं आत्मज्ञान करवुं ते अपूर्व
‘भाव–मंगल’ छे.