Atmadharma magazine - Ank 303
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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वार्षिक लवाजम सं. २४९प
चार रूपिया पोष
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हुं सिद्धनो साधर्मी...
सिद्धनो मित्र
सिद्धभगवंतो ने सन्तो कहे छे के हे जीव! तुं अमारो
मित्र था...आपणे चेतनस्वभावे एक जातना छीए...रागनी
जात ते आपणी जात नथी, माटे तुं रागनी मित्रता छोड ने
अमारी मित्रता कर...शुद्धताने पामेला शुद्धात्मानी मित्रता करतां
तुं पण एना जेवो शुद्ध थईश.
अहा, सिद्धभगवंतो अने सन्तो ‘मित्र’ कहीने बोलावे, तो
एवी सिद्धोनी मित्रता कोने न गमे! संतोनी मित्रता कोने न गमे!
सिद्धभगवान कहे छे के हे मित्र! तुं अमारो साधर्मी
छो...आपणे बंने समानधर्मी छीए (सर्व जीव छे सिद्धसम...)
रागनी साथे तारे साधर्मीपणुं नथी, ए तो ताराथी विधर्मी छे,
ने अमे (सिद्धो तथा संतो) तारा साधर्मी छीए...अमे तारा
मित्र छीए. मित्रता सरखेसरखानी शोभे.
वाह! हे सिद्धभगवंतो! हे संतो! आपना जेवा उत्तम
साधर्मी ने मित्र पामीने हुं न्याल थयो....प्रसन्न थयो. प्रभो! आपे
मने साधर्मी अने मित्र कहीने बोलाव्यो...तो हुं पण आपनो
साधर्मी थई–आपना जेवो थईने आपनी पासे आवी रह्यो छुं.
(मित्र हो तो आवा हो..........साचुं सगपण आ
साधर्मीनुं.)