Atmadharma magazine - Ank 303
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ४२ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
याद आवे छे पांडवभगवंतोनी धीरता
हमणां मागसर वद १४ ना रोज पालीताणा शत्रुंजय–तळेटीमां बंधाता श्वे.
जिनालयना बांधकाममां अकस्मात थतां सेंकडो माणसो घवाया, केटलाक माणसो,
बाळको–युवानो–वृद्धो मरण पाम्या; सौराष्ट्रमां ने देशभरमां हजारो–लाखो लोकोमां
करुण–हाहाकार छवायो...लोकोए पोताथी बनती सेवाओ करी, आश्वासन आप्यां.
आर्य माणसोने करुणा आवे ने वैराग्य जागे एवी करुण घटना बनी गई.
आना करतांय घणाय गंभीर बनावो क्यांक धरतीकंपथी, तो क्यांक पूर
होनारतथी ताजेतरमां ज बन्या हता, ने दुनियामां सदाय एवा प्रसंगो बन्या करे
छे; केमके संयोगो तो क्षणभंगुर ज छे. अने एवा क्षणभंगुरताना प्रसंगो बनतां
लोकोमां तत्काळपूरती लागणीनां पूर उभराय छे, ने थोडादिवसमां पाछा शमी जाय
छे. पालीताणा–होनारतमां ऊभरायेला करुण–लागणीनां पूर पण अत्यारे शमी
गया. क्षणिक करुणा के आघातनी लागणीथी आगळ वधीने विचारणा भाग्ये ज
कोई करतुं हशे! ज्ञानीओए आखी वस्तुस्थिति कोई जुदी ज बतावी छे.
भाई, दुःख मरणनुं नथी, दुःख मोहनुं छे. आ ते ज शत्रुंजय–पर्वत छे के
जेना ‘शिखर’ पर आजथी ८४००० वर्ष पहेलां पांडवमुनिराजो, देह तो अग्निमां
सळगतो होवा छतां ते ज वखते चैतन्यनी शांतिमां लीनतापूर्वक देह छोडीने
मोक्षमां सीधाव्या...मोहशत्रुने जीतीने सिद्धपद साधी लीधुं. अने आजे पण ए ज
शत्रुंजय पर्वत छे के जेनी ‘तळेटीमां’ अनेक मनुष्योए मोहथी दुःखमां रीबाई–
रीबाईने प्राण छोड्या. शत्रुंजय उपर प्राण तो बंनेना छूट्या, पण पहेलांए
(पांडव भगवंतोए) तो देहथी भिन्न चैतन्यनी एवी आराधनापूर्वक देह छोड्यो
के भवथी तरीने आ शत्रुंजयने पण तीर्थ बनाव्युं, अने आजे हजारो वर्षे पण
तेमनी ए आराधनाने याद करीने आपणे आ पर्वतने तीर्थ तरीके पूजीए छीए.
ज्यारे बीजा जीवो एवुं न करी शक्या ने मोहथी–दुःखथी प्राण छोड्या, तो ते
घटनाने गोझारीघटना गणीए छीए. आ रीते जीवोना अंतरना परिणाम अनुसार
जगतनी एक ज प्रकारनी घटनाओमां पण केवुं महान अंतर पडी जाय छे! तेनो
विचारी करीए तो ए मोहशत्रुने जीतनारा वीतरागी पांडवमुनिभगवंतोना
जीवननो आदर्श आपणने पण तेवी आराधना प्रत्ये ऊर्मि जगाडे छे. बाकी तो
एकली करुणानी ऊर्मिओ लोकोमां सौने आवे ज छे. ‘शत्रुंजय’ तो आपणने
स्थिरता–एकाग्रता ने वीरतानो कोई लोकोत्तर सन्देश आपे छे.