: ४ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
आचार्यदेव अप्रतिबुद्धने प्रतिबोधे छे
(एवुं भेदज्ञान करावे छे के जे भेदज्ञान
करतांवेंत जीव आनंदित थाय)
अप्रतिबुद्ध कोण छे?
जे अज्ञानी, जीव अने शरीरने एक माने छे, राग अने ज्ञानने एकपणे
अनुभवे छे, शरीरथी ने रागथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मानो बोध करतो नथी, ते
अप्रतिबुद्ध छे.
अहीं आचार्यदेव कोने समजावे छे?
अहीं एवा अप्रतिबुद्ध–अज्ञानीने आचार्यदेव भिन्न आत्मानुं स्वरूप समजावे
छे: अरे भाई! आत्मा तो उपयोगस्वरूप छे; सर्वज्ञभगवाने केवळज्ञानमां तो
उपयोगस्वरूप जीव जोयो छे; जीव उपयोगस्वरूप छे, ते कांई जडरूप के रागरूप नथी.
अहो, आवो उपयोगस्वरूप आत्मा, तेने तमे ओळखो, अने पुद्गलबुद्धि छोडो.
चैतन्यभावमां रहेलो आत्मा पोते पोताने भूलीने, रागादि परभावोने–
दुर्भावोने पोतानुं स्वरूप मानीने तेमां एकाग्र थयो छे, ते दुरात्मा छे. पोताना
स्वभावरूप ‘भाव–नगर’ नो रहेवासी दुर्भावनगरीमां चाल्यो गयो, रागादि
दुर्भावोने ज ते अनुभवे छे. एवा अविवेकी दुरात्माने (आत्माथी जे दूर छे एवा
दुरात्माने, अथवा रागादि दुर्भावरूपे ज जे पोताने अनुभवे छे एवा दुरात्माने)
समजावे छे के अरे दुरात्मा! तुं उपयोगस्वरूप पोताने जड साथे एकमेक केम माने
छे? जेम पशुओ लाडवा अने घास वच्चे विवेक वगर बंनेने भेळसेळ करीने खाय
छे तेम तुं उपयोगने अने रागने एकमेकपणे अनुभवी रह्यो छे–ते अविवेक छे,
आवा अविवेकने तुं छोड रे छोड! भगवान सर्वज्ञदेवे जोयेलो जीव तो सदा
उपयोगस्वरूप छे; उपयोगने जीवनुं लक्षण भगवाने कह्युं छे, पण कांई
रागलक्षणवाळो के देहवाळो जीव भगवाने कह्यो नथी. अरे, भगवाने कहेला जीवने
तुं ओळखतो नथी, ने पुद्गलने ज तुं जीव मानी रह्यो छे, ते मोटो अविवेक छे; तेमां
आत्मानी हिंसा छे, दुर्बुद्धि छे; तेने तुं हवे छोडी दे. अज्ञानथी अत्यार सुधीनो काळ
तो जड–चेतननी एकत्वबुद्धिमां वीत्यो, पण हवे अमे बंनेनुं भेदज्ञान कराव्युं ते
समजीने तुं प्रतिबुद्ध था, ने बंनेनी एकत्वबुद्धि छोड.
आत्मा उपयोगस्वरूपे नित्य रहेनार छे; पण राग कांई नित्य रहेनार नथी,
उपयोगथी