: महा : २४९प आत्मधर्म : ७ :
देवोने सुख हशे–एम विचारवामां आवे तो,
तेमने पण खरेखर सुख नथी, केमके जे सुख
विषयोने आधीन छे ते दुःखनुं ज कारण छे.
(दुःखी जीवो ज ते विषयो तरफ धसे छे.)
–ए प्रमाणे जो यथार्थ विचारवामां
आवे तो, सर्वप्रकारे असार संसार–के जे घोर
दुःखनो सागर छे–तेमां क्यांय जरापण सुख
नथी.
अरे जीवो! मोहनुं आ माहात्म्य तो
देखो,–के दुष्कृत्यवश राजा पण विष्टामां कीडो
थाय छे अने तेमां ज ते रति करे छे.
पुत्र तो भाई थयो, भाई ते दीयर
थयो, माता तो पत्नी थई, पिता ज पति
थयो; –अरे! धर्मरहित जीवोने एक ज
भवमां आवा संबंधो थई जाय छे, तोपछी
अन्यभवोनुं तो शुं कहेवुं?
(अहीं कार्तिकेयानुप्रेक्षानी टीकामां एक
भवमां अढार संबंध थवानी कथा लखेल छे.
पूर्वभवमां मुनिराजनी निंदा करवाने लीधे जे
वसंततिलका नामनी वेश्यानी पुत्री थई छे
अने पोताना भाईनी ज पत्नी थई छे ते
कमळा, तेना वरुण नामना भाईने
पारणामां झुलावतां तेनी साथेना विचित्र
संबंधो कहे छे के–तुं मारो पुत्र पण छे,
भत्रीजो पण छे, भाई पण छे, दीयर पण छे,
काको पण छे अने पौत्र पण छे. पूरीकथा
माटे जुओ गुजराती कार्तिकेयानुप्रेक्षा पृ.
३१)
आवो आ विचित्र संसार पंचविध
परिभ्रमणयुक्त छे–द्रव्यपरिभ्रमण,
क्षेत्रपरिभ्रमण, काळपरिभ्रमण,
भवपरिभ्रमण अने भावपरिभ्रमण.–आवा
पंचपरावर्तनरूप संसारमां मिथ्यात्व–
कषायसंयुक्तजीव विविध कर्मपुद्गलोने तथा
नोकर्मपुदगलोने दरेक समये बांधे छे. अने
छोडे छे. (–आ द्रव्यपरावर्तन छे.) आ
समस्त लोकाकाशनो एवो कोई भाग नथी के
ज्यां दरेक जीव जन्म्यो–मर्यो न होय. (आ
क्षेत्रपरावर्तन छे.) उत्सर्पिणी तेमज
अवसर्पिणी काळना प्रथम समयथी मांडीने
अनुक्रमे छेल्ला समय सुधी दरेक समयमां जीव
जन्म–मरण करे छे. (–आ काळपरावर्तन
छे.) नरकादि चारे गतिमां जघन्यस्थितिथी
मांडीने उत्कृष्टस्थिति सुधी अनुक्रमे दरेक
आयुस्थितिमां जीव जन्मे छे; आ रीते ग्रैवेयक
सुधीना भवमां जन्मे छे. (–आ
भवपरावर्तन छे.) अने, जघन्यथी मांडीने
उत्कृष्ट स्थितिबंध तथा अनुभागबंधना
निमित्तरूप विविधकषायरूप परिणमतो जीव
संसारमां भमे छे ते भावपरावर्तन छे.–ए
प्रमाणे, घणा दुःखना निधान एवा
पंचपरावर्तनरूप संसारमां जीव
अनादिकाळथी मिथ्यात्वदोषने लीधे भमे छे.
–ए रीते संसारनुं स्वरूप जाणीने, तथा
सर्वप्रकारना उद्यमथी मोहने छोडीने, हे
जीव! तुं ए आत्मस्वभावने ध्याव–के
जेनाथी संसारपरिभ्रमणनो अंत आवे.