: १४ : आत्मधर्म : महा : २४९प
चारे अनुयोगनो अभ्यास करवानुं कह्युं छे, परंतु ते प्रकारनी बुद्धिनी मंदता वगेरे
कारणथी कदाच तेवो अभ्यास न थई शके, तो तेनो निषेध न करे पण बहुमान करे; केमके
चारेय अनुयोग ते वीतरागी जिनवाणी छे; तेनी अरुचि करनारने जिनवाणीनी ज अरुचि
छे. अहीं तो तेनो अभ्यास करवामां पण शुद्धात्मचिन्तननी मुख्यता छे, ते खास वात छे.
चारे अनुयोग भणीभणीने फळ शुं काढवुं?–के शुद्धात्ममां सन्मुखता करवी. जो शुद्धात्मामां
सन्मुखता न करी तो, शास्त्रअभ्यासनुं खरुं फळ आव्युं नथी एटले ते खरेखर शास्त्र
भण्यो ज नथी; तेणे तो पोतानी कल्पनाथी राग ज पोष्यो छे. अहीं कहे छे के चरणानुयोग
द्वारा पण भगवाने चैतन्यस्वभावनो अनुभव करवानुं ज बताव्युं छे. राग अने रागनी
क्रियाओनुं (अणुव्रत–महाव्रतादिनुं) ज्ञान भले कराव्युं पण मोक्षने माटे तो ते रागना
आचरणथी भिन्न एवा चैतन्यस्वभावनो ज अनुभव करवानुं उपदेश्युं छे. एवा अनुभव
वगरनो चरणानुयोग साचो होय नहीं. श्रावकने के मुनिने अंदर शुद्धात्मानी द्रष्टिसहित
भूमिकाप्रमाणे रागादि होय छे, पण ते रागमां धर्मबुद्धि नथी, रागमां कर्तृत्वबुद्धिरूप
एकताबुद्धि नथी. जेने रागमां ज एकताबुद्धि छे, जे रागने ज धर्म समजी ल्ये छे तेने, राग
वगरनां धर्मीनां आचरण केवा होय तेनी खबर नथी एटले धर्मीनां चरणानुयोगने ते
ओळखतो नथी.
समयसार.......गं्रथाधिराज
एवी रीते द्रव्यानुयोग, तेमां पण द्रव्य–गुण–पर्यायना वर्णनद्वारा, जीव–अजीवनी
भिन्नता समजावीने शुद्धात्मानी द्रष्टि करावी छे; तेनो अभ्यास करवो,–पण कई रीते? के
स्वलक्षे अभ्यास करवो, जुओ. आ श्रावकने माटे उपदेश छे एटले के समयसार आदि
द्रव्यानुयोगनो अभ्यास श्रावकोने पण होय छे. द्रव्यानुयोग कांई एकला मुनिओने ज
माटे नथी. अनादिनो–अप्रतिबद्ध के जे देहने ज आत्मा माने छे एवा मिथ्याद्रष्टिने
समयसार द्वारा समजाव्यो छे. चारे अनुयोगमां द्रव्यानुयोग ते स्वानुभवने माटे मुख्य छे
ने तेमां पण अत्यारे समयसार मुख्य छे. तेनो अभ्यास बधाए करवो.
जिनोपदेश स्वानुभव करवा माटे छे; लोकरंजन माटे नहीं
स्वानुभव करावनारो जे जिनोपदेश, तेमां क्यांय शंका न करवी. जेने
मिथ्यात्वशल्य मट्युं नथी, रागनी रुचि गई नथी ते जीव जिनेन्द्रना उपदेशमां शंका करे
छे. रागनुं अवलंबन छोडावनारो जिनोपदेश अज्ञानीने रुचतो नथी केमके तेने रागनी
मीठास छे. अनंता जीव, अनंता परमाणु, तेनां द्रव्य–गुण–पर्यायो वगेरेने जाणीने
चिदानंदस्वभावनी रुचि करवी ने रागनी रुचि छोडवी,–आवो जे वितरागी उपदेश
तेमां अज्ञानी शंका करे छे; जिनवचनमां शंका करनारो ते जीव मिथ्यात्वशल्यने लीधे
संसारमां रखडे छे. पोताने रागनी रुचिनुं शल्य छे एटले वीतरागी जिनवचन तेने
रुचतां नथी, ने रागथी धर्म मनावनारा कुगुरुओनुं शरण लईने ते