Atmadharma magazine - Ank 304
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९प आत्मधर्म : १प :
जीव संसारसमुद्रमां डुबे छे. जिनरंजन छोडीने ते जनरंजनमां लाग्यो छे; एटले रागमां
धर्म मनावनारा कुगुरुनां वचन तेने मीठां लागे छे–समन्तभद्र स्वामी कहे छे के भाई!
परमतोनां रागपोषक वचन भले तने मृदु अने मधुर लागतां होय पण एमां कांई
निजगुणनी प्राप्ति नथी; निजगुण जे सम्यग्दर्शनादि अमृत तेनाथी तो ते रहित छे. ने
मिथ्यात्वरूपी झेरनां ते पोषक छे. वीतरागनां वचनो ज आत्मगुणनी प्राप्ति करावनारां
छे–
–वचनामृत वीतरागनां परम शांतरसमूळ’ (श्रीमद् राजचंद्र)
रागथी धर्म मनावे ए तो बधी लोकरंजननी रीत छे. वीतरागी देवनो उपदेश
तो आत्मरंजन माटे (अर्थात् आत्माने राजी करवा माटे, आत्मानो अनुभव करवा
माटे) छे; ए कांई लोकरंजन माटे नथी. लोको माने या न माने पण कांई वीतरागनो
उपदेश फरे तेम नथी. जगतमां अनंता आत्मा छे, दरेक भिन्न स्वतंत्र छे, ने अनंता
आत्मा सिद्ध थया छे; ते सिद्धभगवान जेवुं ज दरेक आत्मानुं स्वरूप छे–एम
द्रव्यानुयोगनां शास्त्रो ओळखावे छे, बहुमानपूर्वक आवा शास्त्रोनुं चिंतन करवुं.
एक ‘जिनोक्त’ ने बीजो ‘जनोक्त’ एम बे मार्ग छे. जिनोक्त मार्ग तो
वीतराग छे; अने जनोक्त एवा लौकिक मार्गमां बहारथी धर्म मनावे छे तेमां घणा
लोको लागी जाय छे; एमांय जो कोई राजा के प्रधान जेवा माणस आवे तो लोकोनां
टोळां गाडरिया प्रवाहनी जेम तेमां दोडी जाय छे, जेम घेटानुं टोळुं वगरविचार्ये एकनी
पाछळ बीजुं चाल्युं जाय, तेम लौकिकजनो पोताना हितनो कंई पण विचार कर्या वगर
कुमार्गमां चाल्या जाय छे.–बापु! ए तो ‘जनरंजन’ छे, तेमां ‘जिनरंजन’ नथी. जेने
आत्मानी साची श्रद्धानी खबर नथी, भेदज्ञाननी खबर नथी, ते वीतरागमार्गने
भूलीने अज्ञानने अनुमोदे छे. अज्ञानीओमां बहारना त्याग वगेरे देखीने तेनो तेने
महिमा आवी जाय छे. पण एमां आत्मानुं कोई हित नथी. ए तो जनरंजननो मार्ग
छे, एनाथी लोको कदाच राजी थशे पण तारो पोतानो आत्मा एनाथी प्रसन्न नहि
थाय. भाई! जगतने रूडुं देखाडवा तें अनंतकाळ गाळ्‌यो पण आत्माने राजी करवा तें
कदी दरकार करी नहि, परने सुखी करी दईए, परनो उद्धार करी दईए, देशने स्वतंत्र
करी दईए, पृथ्वी उपर स्वर्ग जेवुं सुख उतारी दईए–एवी वातो सांभळवी जगतने
सारी लागे छे, पण बापु! एमां तो तारुं जराय हित नथी, परनी कर्तृत्वबुद्धिरूप
मिथ्यात्वनुं झेर एमां भर्युं छे, ए तो जीवनुं अहित करनार छे. सर्वज्ञदेवे बतावेलुं
अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप वीतराग छे, अमृतनी जेम ते जीवनुं परम हित करनार छे,
आवा जिनोक्त शुद्धतत्त्वने जे नथी साधतो ते सदा अव्रती अने मिथ्यात्वी ज छे. माटे
श्रीगुरु कहे छे के हे भव्य! तुं तारा आत्माना हितने माटे आवा जिनोक्त मार्गने
ओळखीने शुद्ध तत्त्वने लक्षमां ले.