Atmadharma magazine - Ank 304
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : महा : २४९प
ज्ञायकस्वभावी आत्मा
परभावोथी भिन्न एवा ज्ञायकस्वभावी
आत्मानुं स्वरूप बतावतां गुरुदेव कहे छे के
अहो! ज्ञाताद्रष्टास्वभावरूपी आंख, तेमां
रागना कर्तृत्वरूपी अग्निनो कणियो केम
* * *
अहीं ज्ञायकस्वभावी आत्मा परनो ने रागादिनो अकर्ता–अभोक्ता छे–ते
वात समजावे छे. ज्ञानस्वभावी आत्मा छे ते पोताना ज्ञानभावथी भिन्न अन्य
भावोनो कर्ता–भोक्ता नथी. शरीर–मन–वाणी–कर्म वगेरे जड पदार्थोने तो आत्मा
कदी करे नहीं ने तेने भोगवे पण नहीं. तेने हुं करुं–हुं भोगवुं एम अज्ञानथी ज
जीव माने छे, पण तेने करतो के भोगवतो नथी. पुण्य–पाप जे तेनुं स्वरूप नथी
तेने पण ज्ञानभावे आत्मा करतो के भोगवतो नथी, मात्र जाणे ज छे. सर्वविशुद्ध
ज्ञानस्वरूप आत्मा ते पोताथी भिन्न भावोनो करनार के भोगवनार नथी, ते–रूपे
थनार नथी. कर्मोनी बंध–मोक्षरूप अवस्थानो कर्ता आत्मा नथी, आत्मा तो
ज्ञाताभावमात्र छे. तेनुं ज्ञान पर पदार्थोने तो करतुं–वेदतुं नथी, ने व्यवहारसंबंधी
रागादि विकल्पो तेने पण ते करतुं–भोगवतुं नथी. आवा सहज ज्ञानस्वरूप
आत्माने श्रद्धामां–ज्ञानमां–अनुभवमां लेवो ते धर्म छे. आवा आनंदमूर्ति
आत्माना ज्ञानस्वभावमां अकर्ता–अभोक्तापणुं क्या प्रकारे छे ते अहीं विशेष
समजावशे; तथा तेना उपशमादि पांच भावोमांथी मोक्षना कारणरूप भावो क्या छे
ते पण समजावशे.
अज्ञानने लीधे जीव चार गतिमां रखडीने दुःखी थई रह्यो छे; ते दुःखथी
छूटकारो केम थाय ने परम सुखनो अनुभव केम प्रगटे?–के पोतानो साचो स्वभाव
जाण्ये–अनुभव्ये सुख प्रगटे ने दुःखथी मुक्ति