ज्ञानस्वरूपने भूलीने भ्रमणाथी जीव चार गतिमां भ्रमी रह्यो छे, तेनाथी छूटवा
ज्ञानस्वभावी आत्मा जेवो छे तेवो जाणवो जोईए. ते माटे वीतरागी संतोए अलौकिक
रीते तेनुं स्वरूप समजाव्युं छे.
भोगवतुं नथी. आंखनुं द्रष्टांत आपीने आचार्यदेव ते वात समजावे छे–
जयम नेत्र तेम ज ज्ञान नथी कारक, नथी वेदक अरे!
जाणे ज कर्मोदय, निरजरा, बंध तेमज मोक्षने. (३२०)
जेम नेत्र एटले के आंख, ते अग्निने देखे छे पण तेने ते करती नथी, ने
ज छे, पण तेने पोते करतुं के वेदतुं नथी. ज्ञानमां विकारनुं के जडनुं वेदन नथी.
दर्शन ने ज्ञान ते भगवान आत्मानां चक्षु छे; ते दर्शन–ज्ञानचक्षु शरीरने के रागादि
विकल्पोने करता नथी. जेम आंख वडे अग्नि सळगे नहि तेम ज्ञानभाव वडे परनां
के रागनां काम थाय नहि; जेम संघूकण एटले के बळतण ते अग्निनुं कर्ता छे, ने
अग्निथी तप्त लोखंडनो गोळो ते अग्निनी उष्णतानो वेदनार छे, ए रीते तेमने
अग्निनुं कर्ता–भोक्तापणुं छे, पण ते बंनेने जोनारी द्रष्टि (आंख) ते तो कांई
अग्निने करती के भोगवती नथी. आंख जो अग्निने वेदे तो पोते दाझी जाय. तेम
शुद्ध ज्ञान पण रागादि भावोने के कर्मनी बंध–मुक्त अवस्थाने करतुं के वेदतुं नथी,
एटले के अकर्ता ने अभोक्ता छे.
पोते शुद्ध उपादानरूपे तेने करतो