Atmadharma magazine - Ank 304
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : महा : २४९प
भोगवतो नथी. शुद्धज्ञानपरिणत धर्मीजीव ते कर्मनो के विकारनो कर्ता नथी,
भोक्ता नथी; तेमां तन्मय थईने पोते ते–रूपे परिणमतो नथी. पण द्रष्टिनी
माफक ज्ञाता ज रहे छे. आवा ज्ञानभावरूप परिणमन ते धर्म छे. शुद्धजीव
शुद्धउपादानरूप थईने अशुद्ध एवा रागादि व्यवहारभावोने करतो नथी.
शुद्धज्ञानरूप परिणमेलो ज्ञानीजीव अशुद्धभावमां तन्मय थतो नथी, एटले तेने
करतो के भोगवतो नथी. आ रीते अकर्ता–अभोक्ता एवुं शुद्धस्वरूप समजतां
आत्माने धर्म थाय छे. आवुं स्वरूप समजी पोताना ज्ञाताद्रष्टास्वभावनी सन्मुख
थईने रागादिना अकर्ता–भोक्तापणे परिणमवुं, ते वीतरागदेवे कहेलो मोक्षमार्ग
छे.
अहो, ज्ञाताद्रष्टास्वभावरूपी आंख, तेमां रागना कर्तृत्वरूपी अग्निनो
कणियो समाय तेम नथी; शुं आंखमां तणखो समाय? न समाय. शुभ–अशुभ
राग ते तो आगसमान छे, ते ज्ञानचक्षुमां केम समाय? ज्ञानचक्षु तेने केम करे?
ने तेने केम भोगवे? ते तो तेनाथी भिन्न रहीने तेने मात्र जाणे छे.
जेम संघूकण वडे अग्नि सळगाववानी क्रिया आंख नथी करती, आंख तो
तेने जाणे ज छे, तेम ज्ञेयपदार्थोनी क्रियाने आत्मा करतो नथी, ते तो तेने जाणे ज
छे; पुण्य–पाप पण ज्ञाननुं ज्ञेय छे. ज्ञान तेने जाणे ज छे पण तेने करतुं नथी. जो
ज्ञान पोते पुण्य–पापने करे तो ज्ञान पोते पुण्य–पाप थई जाय. जुदुं न रहे;–जेम
अग्निने आंख पोते सळगावे तो आंख पण सळगी जाय. जेम ज्ञानस्वभावी
आत्मा परनो के रागादिनो कर्ता नथी तेम ते तेनो भोक्ता पण नथी. आवो एनो
स्वभाव छे. आवा आत्मस्वभावने श्रद्धा–ज्ञान–अनुभवमां लेवो ते मोक्षनुं कारण
छे.
आ बहारनी आंख देखाय छे ते तो पुद्गलनी रचना छे; आत्मा तो
ज्ञाननेत्रवाळो छे. नेत्र पोताथी बहारनी वस्तुओने आघीपाछी करतुं नथी, तेम
जगतनो द्रष्टा एवो आत्मा द्रश्य पदार्थोमां कोईने आघुंपाछुं करतो नथी, पोते पोतामां
रहीने विश्वने देखे ज छे. राग पण ज्ञानथी भिन्न वस्तु छे, बंनेनुं स्वरूप जुदुं छे; जो
जुदुं न होय