Atmadharma magazine - Ank 304
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९प आत्मधर्म : २७ :
तारो आत्मा, ते ज्यां गुणभेदना विकल्प वडेय अनुभवमां नथी आवतो, त्यां
रागादिनुं कर्ताभोक्तापणुं तेना अनुभवमां केवुं? ठंडी बरफनी पाट जेवी जे शीतळ
चैतन्यशिला, तेमांथी रागादि विकल्पोरूपी अग्नि केम नीकळे? जेमां जे तन्मय होय
तेने ज ते करी के भोगवी शके. पण जेनाथी जे भिन्न होय ते तेने करी के वेदी शके
नहि. ज्ञान सिवाय बीजा भावने करे के वेदे ते साचो आत्मा नहि, रागादि
परभावोनुं कर्तृत्व देखनारने साचो आत्मा देखातो नथी. द्रव्यस्वभावमां राग–
द्वेषादि नथी एटले ते स्वभावने जोनारी ज्ञानद्रष्टिमां पण रागद्वेषनुं–
कर्ताभोक्तापणुं नथी. रागद्वेषनी उत्पत्ति ज्ञानमांथी थती नथी. राग अने ज्ञान
त्रिकाळ भिन्न छे–आवुं अपूर्व भेदज्ञान ते आनंदथी भरेलुं छे ने ते जन्म–मरणना
अंतनो उपाय छे.
* ज्ञानचेतनारूपे परिणमता ज्ञानी मुक्त छे *
भाई, तुं ज्ञान छो; तारो ज्ञानस्वभाव केवो छे तेने तुं ओळख.
‘सर्वविशुद्धज्ञान’ एटले रागादि वगरनुं शुद्ध ज्ञान, तेनुं स्वरूप समजावतां
आचार्यदेवे कह्युं के आत्मा ज्यांसुधी राग अने ज्ञाननुं भेदज्ञान करतो नथी, ने
अज्ञानभावथी कर्म तथा कर्मफळना कर्ता–भोक्तापणामां लीन वर्ते छे त्यांसुधी ते
मिथ्याद्रष्टि–संसारी छे. अने ज्यारे भेदज्ञान करीने ज्ञायक–दर्शकभावरूपे परिणमे
छे, त्यारे ते ‘मुक्त’ छे, ते कर्मने के तेना फळने करतो–भोगवतो नथी; कर्मचेतना
के कर्मफळचेतना ए बंनेथी रहित एवी पोतानी ज्ञानचेतनारूपे परिणमे छे.
ज्ञानचेतना कहो के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र कहो, ते–रूपे जे जीव परिणम्यो ते
मुक्त ज छे. परभावोनुं कर्ता–भोक्तापणुं अज्ञानमां हतुं, ज्ञानमां तेनो अभाव
छे. आचार्यदेव कहे छे के–आम जाणीने हे जीवो! हे आत्मबुद्धिवाळा प्रवीण
पुरुषो! तमे अज्ञानीपणाने छोडो, ने शुद्ध एक आत्मामय ज्ञानतेजमां निश्चल
थईने ज्ञानीपणाने सेवो.
ज्ञानीनी ‘ज्ञानचेतना’ नुं स्वरूप कोई अद्भुत छे! ते कर्मचेतनाथी रहित
होवाथी अकर्ता छे, ने कर्मफळचेतनाथी रहित होवाथी अभोक्ता