Atmadharma magazine - Ank 304
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : महा : २४९प
छे. आ रीते ज्ञानचेतनावंत ज्ञानी कर्मने करता के भोगवता नथी. एकली
ज्ञानचेतनामय होवाथी ते केवळ ज्ञाता ज छे, एटले शुभ–अशुभ कर्मबंधने तथा
कर्मफळने केवळ जाणे ज छे. आ रीते ज्ञानस्वभावमां ज निश्चल होवाथी
‘स हि मुक्त
एव.’
ए प्रमाणे ज्ञानीनी ज्ञानचेतनामां कर्मनुं अकर्तापणुं ने अवेदकपणुं
बतावीने आ ३२० मी गाथामां ते वात द्रष्टांतपूर्वक समजावे छे. ‘ज्ञाननुं’ स्वरूप
समजाववा आचार्यदेवे द्रष्टिनुं द्रष्टांत आप्युं. जेम द्रष्टि एटले के आंख
बाह्यपदार्थोने करती–भोगवती नथी; जेम अग्निना संसर्गमां रहेलो लोखंडनो
गोळो पोते उष्ण थईने अग्निनी उष्णताने अनुभवे छे (एटले के पोते उष्ण थाय
छे) पण तेने जोनारी द्रष्टि (आंख) कांई ऊनी थती नथी, केमके तेने अग्नि साथे
संसर्ग नथी–एकता नथी; आ सौने देखाय एवुं द्रष्टांत छे. तेम–(आंखनी माफक)
शुद्धज्ञान पण कांई परद्रव्यने के रागादिने भोगवतुं नथी, ते ज्ञान रागना संसर्ग
वगरनुं छे. ‘शुद्धज्ञान’ एटले अभेदनयथी ते शुद्धज्ञानपरिणतिरूपे परिणमेलो
जीव, ते जाणनार ज छे, कर्मोनो कर्ता–भोक्ता नथी. अने ज्यां कर्मोनो कर्ता–
भोक्ता नथी त्यां तेने बंधन पण क्यांथी थाय? माटे मुक्त ज छे–
‘स हि मुक्त
एव’
* चैतन्यचक्षु ते ज आत्मानी आंख छे...
तेनाथी जीवनी शोभा छे *
जेम आंख परथी छूटी छे तेम ज्ञान परथी छूटुं छे. जेम आंख तेम ज्ञान
परने देखे, पण तेने करे के भोगवे नहि. पदार्थने देखनारी आंख तेने दूर के नजीक
करती नथी; सोनुं देखाय माटे तेने नजीक लाववुं के कोलसो देखाय तेने दूर करवो–
ए काम आंखनुं नथी, आंखनुं काम बंनेने जोवानुं ज छे; तेम आत्मानुं ज्ञानचक्षु
परद्रव्यने मेळवे नहि, छोडे नहि, मात्र जाणे. अमुक वस्तुने देखतां ज्ञान राजी
(रागी) थाय ने अमुक वस्तुने देखतां ज्ञान नाराज (द्वेषी) थाय एवुं ज्ञानमां
नथी, एटले ते राग–द्वेषनुं कर्ता नथी. अने जेम कर्ता नथी तेम तेना फळनुं
भोक्ता पण नथी. आवा शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा छे, तेने ओळखीने अनुभववो
ते धर्म छे.