पं. बुधजनरचित प्रथम ढालनो भावार्थ
सर्वे द्रव्योमां जे सार छे, आत्माने हितकार छे एवा नित्य–निरंजन
स्वरूपने जाणीने, अने तेने चित्तमां धारीने नमस्कार करुं छुं.
(ए प्रमाणे मंगलाचरण करीने पछी बार पद द्वारा अनुक्रमे
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर,
निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ अने संसार ए बार भावनानुं कथन कर्युं छे.)
(१) हे भाई! तारुं आयुष्य दिनरात घटतुं जाय छे, छतां तुं निश्चिंत केम थई
रह्यो छे? आ युवानी, शरीर, लक्ष्मी, सेवक के स्त्री–ए तो बधा पाणीना परपोटा जेवा
क्षणभंगुर छे. (अनित्यभावना)
(२) आयुष्य पूरुं थतां एक क्षण पण वधतुं नथी,–भले करोडो रूपिया तीर्थमां
दान करो. ईन्द्र के चक्रवर्ती पण शुं करे?–आयुष्य पूर्ण थतां ते पण मरे छे.(अशरण
भावना)
(३) ए प्रमाणे संसार अत्यंत असार छे; तेमां पोतानो आत्मा ज सार छे.
संसारमां सुख पछी दुःख, ने दुःख पछी सुख थया ज करे छे, चार गतिमां क्यांय समता
के शांति नथी. (संसारभावना)
(४) अनंतकाळथी जीव गति–गतिमां (चारे गतिमां) दुःख पाम्यो; ने
अनंतकाळ चारे गति रहेशे. तेमां आत्मा एकलो छे, चारे गतिमां जीव एकलो छे ने
मोक्षमां पण एकलो छे; चेतन एक छे ने तेनामां गुणो अनेक वसे छे.(एकत्वभावना)
(प) हे जीव! तुं कोईनो नथी, ने कोई तारुं नथी; तारा सुख–दुःख तने ज थाय
छे. माटे परथी भिन्न तारा स्वरूपने तुं अंतरमां विचार, अने परद्रव्योनो मोह छोड.
(अन्यत्वभावना)
(६) हाड–मांसथी भरेला आ शरीर उपर चामडुं मढेलुं छे; अंदर तो लोही ने
मळमूत्र भरेला छे. एवुं होवा छतांय ते स्थिर तो रहेतुं नथी, चोक्कसपणे क्षय पामी
जाय छे; एने तजतां जीव मुक्ति पामे छे. (अशुची भावना)
(७) शरीर–कुटुंबीजन वगेरेमां हित–अहितबुद्धिरूप मिथ्या प्रवृत्तिने तुं केम
छोडतो नथी?–ए मिथ्या प्रवृत्तिथी तो साता–असातारूप रोग देनारा पुदगलकर्मो
परिणमे छे. (आस्रवभावना)
(८) हे जीव! तुं पांचे ईन्द्रियोना विषयो रोकीने, चित्तनिरोध करीने,
मोक्षमार्गमां लाग...तुं तारा स्वरूपमां ज सहेल कर. मफतनो घाणीना बळदनी जेम केम
भमी रह्यो छे? (संवरभावना)