Atmadharma magazine - Ank 304
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : महा : २४९प
(९) कषाय अने मननी चंचळवृत्तिने छोडीने, आनंदरसथी भरेला
निजस्वरूपने तुं ध्याव!–जेथी दुःखदायी कर्मो झरी जाय अने केवळज्ञान–प्रकाश प्रगटे.
(निर्जराभावना)
(१०) लोकमां एवुं कोई क्षेत्र नथी के ज्यां तारो जन्म न थयो होय. तुं आ
जन्मभूमिमां मोहित थईने केम राचे छे? सम्यक् उपाय वडे एमांथी नीकळ, (अर्थात्
निकल–अशरीरी एवा सिद्धपदमां चाल) तो तुं कर्मबंधनथी छूटीश. (लोकभावना)
(११) हे जीव! सर्वे व्यवहारक्रियाओनुं ज्ञान तो तें अनंतवार कर्युं, परंतु
जेनाथी कल्याण थाय छे एवा निजस्वरूपनुं ज्ञान अत्यंत दुर्लभ छे. (एवुं ज्ञान प्रगट
कर.) (दुर्लभबोधिभावना)
(१२) स्वाभाविक धर्म निजस्वरूपनुं श्रद्धान छे; परंतु बाह्यशील, स्नान के
दानादि ते धर्म नथी. हे बुधजन! श्रीगुरुना आवा उपदेशनो तमे विचार करो अने
निजस्वरूपनो निर्णय करीने आत्मधर्मने ग्रहण करो. (धर्म
भावना)
मुमुक्षुनी पात्रता
दया शांति समता क्षमा,
सत्य त्याग वैराग्य.
होय मुमुक्षु घट विषे,
एह सदाय सुजाग्य. (आत्मसिद्धि)
जे जीव मुमुक्षु छे तेना अंतरमां सदाय दया शांति समता क्षमा सत्य त्याग अने
वैराग्यादि भावो होय छे. जे जीव मुमुक्षु छे–जे शुभ रागने पण तोडीने
परमवीतरागभावरूप मोक्षने ईच्छे छे–तेने क्रोध केम गमे? तेने अशांति के असत्य केम
गमे? ज्यां वारंवार अंतरमां चैतन्यना अनुभव माटेनी भावनाओ घूंटाय छे त्यां
विषय–कषायना परिणामो एकदम शांत थई जाय छे. क्रोधमां असत्यमां विषयोमां जेना
परिणाम लवलीन रहेता होय तेनामां मुमुक्षुता क्यांथी जागे?
अहा, मु.....मु.....क्षु एटले तो मोक्षनो पथिक! एना परिणामोनो झुकाव संसार
तरफ न होय, संसारथी विमुख थईने चिदानंदस्वरूपने ज ते वारंवार भावे छे. ने एवी
उत्तम भावना पासे अशुभपरिणाम बिचारा केम टकी शके? त्यां तो परिणामोमां
वैराग्य–कोमळता वगेरे पात्रता सहेजे होय छे.