हे जीव! अत्यंत दुर्लभ मनुष्यपणुं पामीने अपूर्व
एवा रत्नत्रयनी आराधनामां तारा आत्माने जोड.
एकेन्द्रियादिक अंतग्रीवक तक तथा अंतर घनी,
पर्याय पाय अनंतवार अपूर्व सो नहीं, शिवधनी!
संसृति–भ्रमणत थकित लखि अब दासकी सुन लीजिये,
सम्यक्दरश–वरज्ञान–चारित–पथविहारी कीजिये.
संसारभ्रमणथी थाकेलो जीव विचारे छे के हे प्रभो! आ संसारमां भमतां
एकेन्द्रियथी मांडीने अंतिम ग्रैवेयक सुधीनी तथा वच्चेनी अनेक पर्यायो हुं अनंतवार
पामी चुक्यो, मारे माटे ते कोई पर्याय अपूर्व नथी. हे मोक्षना नेता! हवे मने
संसारभ्रमणथी थाकेलो जाणीने मारी प्रार्थना सांभळो...अने मने उत्तम सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षपथनो ‘विहारी’ करो.