जेने अंतरमां चैतन्यना भेटा थया छे, एवा ज्ञानीधर्मात्मा मति–श्रुतज्ञानथी चैतन्यना
अतीन्द्रिय आनंदनुं स्वसंवेदन करे छे. अहा, जगतना रसथी जुदी जातनो चैतन्यनो
रस छे. ईन्द्रपदना वैभवमां के देवोना अमृतमां पण ते रस नथी. समकिती ईन्द्रो जाणे
छे के अमारा चैतन्यना अतीन्द्रिय स्वाद पासे आ ईन्द्रपद तो शुं!–आखा जगतनो
वैभव पण तूच्छ छे...नीरस छे चैतन्यनो रस अत्यंत मधुर...अत्यंत शांत...अत्यंत
निर्विकार. आवा अत्यंत मधुर चैतन्यरसनुं संवेदन थतां एवी तृप्ति थाय के आखा
जगतनो रस ऊडी जाय. शांत...शांत चैतन्यरसनुं मधुरु वेदन थयुं त्यां आकुळताजनक
एवा कषायना कडवा रसनुं कर्तृत्व केम रहे? ए रसने कोण चाखे? कषायोथी चैतन्यनुं
अत्यंत भिन्नपणुं थयुं स्वसन्मुख थईने आवा स्वादनुं स्वसंवेदन करवानी मति–
श्रुतज्ञाननी ताकात छे. मतिश्रुतने स्वसन्मुख करीने धर्मात्मा आवा चैतन्यस्वादनुं
प्रत्यक्ष स्वसंवेदन करे छे.
तो बधुं सुलभ छे. आ भावो समजे तो शांतरसरूपी अमृतना सागर ऊछळे ने झेरनो
(कषायोनो) स्वाद छूटी जाय. भेदज्ञाननो आ महिमा छे. भेदज्ञानवडे ज शांतरस
अनुभवाय छे. भेदज्ञानी थतां ज जीवनी आवी दशा थाय छे. ज्ञानी धर्मात्मा
चैतन्यरसना स्वाद पासे जगतना बधा स्वाद प्रत्ये सदाय उदासीन छे. राग प्रत्ये पण
अत्यंत उदासीन छे–तेना कर्ता थता नथी. पोताने एक ज्ञायकस्वभावपणे ज अनुभवे
छे.–आवी दशाथी ज्ञानी ओळखाय छे.