: ८ : आत्मधर्म : फागण : २४९प
१३२. पोतामां सुख होवा छतां जीव ए सांभळतांय वैराग्य
दुःख केम वेदी रह्यो छे? आवी जाय तेवी.
पोताना सुखस्वभावने १४२. सुकुमार क्यारे वैराग्य पाम्या?
भूल्यो छे तेथी. मुनिराजना श्रीमुखथी स्वर्ग–नरकनुं
१३३. नरकना जीवोने आत्मज्ञान थाय? वर्णन सांभळीने.
हा, त्यां पण कोई १४३. जीवे पूर्वे अनंतदुःख सहन कर्यां
जीवो आत्मज्ञान पामे छे. ते याद केम नथी आवतां?
१३४. नरकमां कोई जीव सुखी होय? ज्ञानमां ते प्रकारनी विशुद्धि नथी तेथी.
हा, त्यां पण सम्यग्दर्शनवडे कोई १४४. जीवे नवो अवतार न करवो
जीव सुखनो स्वाद चाखी ल्ये छे. होय तो शुं करवुं?
१३प. जीव जागे तो केटला मोक्षसुख साधी लेवुं, –जेथी
वखतमां केवळज्ञान ल्ये? फरी अवतार न रहे.
अंतर्मुहूर्तमां. १४प. देह छूटतां मरणनी बीक कोने छे?
१३६. अनंतकाळनुं अज्ञान अज्ञानीने.
टाळवा केटलो वखत लागे? १४६. ते वखते ज्ञानीने शुं छे?
निजशक्तिने संभाळतां ‘आनंदनी लहेर. ’
क्षणमात्रमां अज्ञान टळी जाय. १४७. जीवने दुःख गमतुं नथी छतां
१३७. देडकांने चीरीने भणतर ते केम दुःखी छे?
भणे–ते केवुं? दुःखना कारणने सेवे छे–तेथी.
ते अनार्यभणतर; आर्यमाणसमां १४८. जीवने सुख गमे छे–छतां ते
एवी क्रुरता न होय. केम सुख नथी पामतो?
१३८. चारगतिमां दुःखथी डरे–तो शुं करवुं? सुखना कारणने सेवतो नथी–तेथी.
तो सर्वे परभावो छोडीने १४९. पोतामां आनंदनो समुद्र भर्यो छे
शुद्धात्मानुं चिन्तन करवुं. छतां जीवने केम आनंद नथी?
१३९. अज्ञान अने दुःखमय पोतानी सामे जोतो नथी,
जीवन जीवने शोभे छे? बहार जुए छे, तेथी.
ना. १प०. नरकमां ऊपजतावेंत जीव
१४०. धर्म वगर कदी सुख थाय? केवुं दुःख पामे छे?
ना.
१४१. जीवनी दुःखकथा केवी छे?