Atmadharma magazine - Ank 305
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : फागण : २४९प
ज्ञानस्वभाव ए ज ध्रुव,
ने ए ज शरण
(सोनगढमां वीर. सं. २४९प माह वद पांचमे स. गा. ७४ उपरना प्रवचनमांथी)
चैतन्यस्वरूप आत्मा शान्त–अनाकुळ छे. तेमां प्रवेश करतां अशांति टळे ने
शांतिनुं वेदन थाय. ते कई रीते थाय? ते कहे छे.
आत्मानो ज्ञानस्वभाव ध्रुव सदा रहेनारो छे, असंयोगी छे, ने देहादिनो संयोग
अध्रुव छे, रागादि परभावो पण संयोगाश्रित थयेला अध्रुवभावो छे, ते आत्माना
स्वभाव साथे एक थईने नथी रह्या, एटले तेओ आत्माने शरणरूप नथी, अशरण ने
अध्रुव छे. शरण ने ध्रुव तो ज्ञानमय पोतानो स्वभाव छे.
आम बंनेने जाणीने, अध्रुव एवा आस्रवभावोथी पाछो वळे (अर्थात् तेमां
एकत्वबुद्धि छोडे) अने अंतरना ध्रुवस्वभावमां वळीने अभेद थाय छे,–आ रीते ज्ञान
थतांवेंत ज आत्मा रागादि परभावोथी पाछो वळे छे. एटले ज्ञाननी उत्पत्ति अने
रागनी निवृत्ति–बंनेनो एक ज काळ छे.
सर्वज्ञ परमेश्वरे दरेक आत्माने आनंदमय जोयो छे; जे रागादि भावो छे ते तो
चैतन्यरत्न उपरना डाघ छे–कलंक छे; पण ए डाघ उपर–उपरनो मूळ चैतन्यहीरो तेवो
नथी. आवा चैतन्यस्वरूपने द्रष्टिमां लईने तेमां एकाग्र थतां रागादि मलिनता छूटी
जाय छे, ने ज्ञानरत्नमां निर्मळ किरणो प्रगटे.–एने भगवान धर्म कहे छे.
चैतन्यभगवान आत्मा जो रागनुं शरण लेवा जाय तो तेनुं ज्ञान हणाय छे–
अज्ञान थाय छे. राग पोते ज्ञान नथी. ते तो ज्ञानथी विरुद्ध छे, अस्थिर छे; ते रागने
कांई एवी खबर नथी के हुं राग छुं, –ते तो खबर वगरना अचेतभाव छे, तेनाथी
जुदुं ज्ञान ज तेने जाणे छे के ‘आ राग छे’. हुं राग नथी, हुं तो रागने जाणनार ज्ञान
छुं; –आवुं जे ज्ञान छे ते आत्मा छे; ने आवा ज्ञानमां वर्ततो आत्मा ते
रागादिभावोथी निवर्तेलो छे–छूटो पडेलो छे, आत्मा तरफ झुकेलुं ज्ञान राग वगरनुं छे.
भाई! शुं आत्मा पुण्य–पापस्वरूप छे? ना, ए तो चेतनरूप छे; जेम मोटा
झाडने जराक भागमां लाख वळगी होय त्यां आखुं झाड कांई लाखरूप थई गयुं नथी.
तेम आखो अनंतगुणथी भरेलो चैतन्यवडलो, तेनी साथे क्षणिक रागादि भावो
बंधायेला छे, पण आखुं चैतन्य झाड कांई रागरूप थई गयुं नथी. –आम अंतरमां
आत्मानो स्वभाव अने रागादि ए बंने वच्चे भिन्नताने ओळखे ते क्षणे