Atmadharma magazine - Ank 305
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९प आत्मधर्म : १३ :
ज जीवनुं ज्ञान रागादिथी पाछुं वळीने स्वभाव तरफ झूकेलुं होय छे. ते ज्ञानमां
स्वभावनी अस्तिरूप ने रागादिनी नास्तिरूप एकसाथे परिणमन छे. आवुं परिणमन
थाय त्यारे जीवने साचुं ज्ञान थयुं कहेवाय, ने त्यारे ते मोक्षमार्गमां आव्यो एटले के
भगवानना मार्गमां आव्यो.
मरतां ‘देह छूटयो’ एम लोको कहे छे; देह ते कांई आत्मा न हतो, ते छूटो हतो
ने छूटो पड्यो; पण शुं ज्ञान कांई छूटे?–ज्ञान कांई आत्माथी जुदुं पडे? न पडे, केमके
ज्ञान तो आत्मानो स्वभाव छे. ए ज रीते रागनो अभाव थाय छे केमके ते पण
आत्मानो अविरुद्धस्वभाव नथी; ते तो विरुद्धभाव छे. आत्माना निजभावमां तेनो
प्रवेश नथी एटले ते टळी जाय छे.
* ज्ञान ते आत्मानो अविरुद्धस्वभाव छे.
* राग ते आत्मानो विरुद्धभाव छे.
* ए रीते ज्ञानने अने रागने भिन्नता छे.
–ए प्रमाणे बंनेने जुदा जाणीने ज्ञान ज्ञानपणे परिणम्युं ने रागपणे न
परिणम्युं,–ए साचुं भेदज्ञान छे, ते आस्रवोथी निवृत्ति छे, ते ज संवर छे, ते ज मोक्षनो
उपाय छे.
निजवैभवनुं भान थतां...
निजवैभवनुं भान थतां यथार्थ वस्तुस्थितिनी
मर्यादा सम्यग्द्रष्टिए एम जाणी के चैतन्यसीमामां
परभावनो प्रवेश जरापण नथी. चैतन्यना द्रव्यमां
गुणमां के निर्मळपर्यायमां क्यांय परभाव नथी, पण
परभावना अभावरूप मारो स्वभाव छे. आवो, स्वभाव
वर्तमानमां जाण्यो, ने सदाकाळ आवो ज स्वभाव रहेशे.
जेवुं वर्तमान तेवुं त्रिकाळ. वर्तमानमां शुद्धताना वेदन
वगर त्रिकाळ शुद्ध स्वभाव प्रतीतमां आवी शके नहि.
भाई! तारा ज्ञानलक्षणने लंबावीने तुं देख तो अत्यारे
ज तारो आत्मा कर्मना ने विकारना अभावरूपे तने
देखाशे, केमके कर्ममां के विकारमां ज्ञान लक्षण रहेतुं नथी.
ज्ञान लक्षण तो शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायमां ज रहे छे.