: १४ : आत्मधर्म : फागण : २४९प
आत्महित माटे
वैराग्यरसभीनो उपदेश
दौल!ं समज सुन चेत सयाने काल वृथा मत खोवे;
यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक् नहि होवे.
भाई, अनंतवार मनुष्यभव पाम्यो पण आत्माना ज्ञान विना ते व्यर्थ
गुमाव्यो. युवानीमां विषयवासनामां ने धनमां एवो मोह्यो के बीजुं कांई सुझे ज
नहीं! ए रीते किंमती काळ पापमां गुमाव्यो. जो के आत्मानुं हित करवा मांगे तो
युवानीमां पण करी शकाय छे; पण आ तो दरकार नथी करता एवा जीवोनी वात छे.
अनंतवार आत्मानी दरकार वगर युवानी पापमां गुमावी, माटे आ अवसरमां
आत्मानी दरकार करजे–एम उपदेश छे.
मनुष्यजन्मनी युवानीनो काळ–ते तो धर्मनी कमाणीनो खरेखरो वखत छे,
एवा वखते विषयकषायोमां डुबीने रत्नचिंतामणि जेवो अवसर वेडफी नांखे छे!
भाई, आ मनुष्यपणानी एकेक घडी महा किंमती छे, लाखो–करोडो रूपिया आपतांय
एनी एक घडी मळे तेम नथी. नानो होय तो दडा ऊडाडवामां वखत गाळे ने मोटो
थाय एटले पैसा कमावामां वखत चाल्यो जाय. पण भाई, क्षणेक्षणे तारा जीवननो
दडो ऊडी जाय छे अने तारा आत्मानी कमाणी चुकी जवाय छे, तेनी कांई दरकार
खरी? आवो अवसर व्यर्थ गुमाववा जेवो नथी.
वृद्धावस्था क्यारे आवी जाय छे तेनी खबर पण नथी पडती; वृद्धावस्था थतां
अर्धमृतक जेवी दशा थई जाय छे. देहमां अनेक रोग थाय, हालीचाली शकाय नहि,
खावापीवामां पराधीनता, ईन्द्रियो काम करे नहि, आंखे पूरुं देखाय नहि, स्त्री–पुत्रादि
पण कहेवुं माने नहि,–अने द्रष्टि तो ए बधा संयोगो उपर ज पडी छे, एटले जाणे के
जीवन हारी गयो–एम ते जीव दुःखी–दुःखी थई जाय छे, पण बाल–युवान–वृद्ध त्रणे
अवस्थाथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वरूपने मोही जीव जाणतो नथी. ने आत्माना भान
वगर मनुष्यपणुं दुःखमां ज गुमावे छे.
वृद्धावस्थामांय आत्मानुं कल्याण करवा धारे तो करी शकाय छे. –‘ए तो जाग्या
त्यांथी सवार.’ अगाउ तो घणा जीवो शरीरमां सफेद वाळ देखतां वैराग्य पामीने दीक्षा
लई लेतां, एवा प्रसंगो बनता. पण हजी देहथी भिन्न आत्मानुं ज्ञान पण ज्यां न
होय त्यां दीक्षा क्यांथी ल्ये? चैतन्यनी श्रद्धा चूकीने देहनी अनुकूळतामां ज मूर्छाई
गयो, ने प्रतिकूळता आवे त्यां दुःखना ढगलामां जाणे दटाई