: फागण : २४९प आत्मधर्म : १५ :
गयो. संयोगथी जुदो जीव देखातो ज नथी; आवा जीवो जे संयोगमां रहे तेनाथी बीजा
करतां हुं कांईक अधिक छुं–एम देखाडवा मथे छे, संयोगथी अधिकता माने छे पण–
‘लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो! ’ भाई! संयोग वधतां तारा
आत्मामां शुं वधी गयुं? पाडा अने हाथीनुं शरीर घणुं मोटुं होय छे तेथी शुं तेना
आत्मानी अधिकता थई गई? ना; आत्मानी अधिकता तो ज्ञानस्वभाव वडे छे. मारो
आत्मा ज्ञानस्वभावने लीधे बीजा बधाथी अधिक छे, रागथी पण ते अधिक छे, अधिक
छे एटले जुदो छे–एम जेणे आत्मानी अधिकता न जाणी, ते जीवो शरीरथी, आबरूथी,
धनथी, कुटुंबथी, मकानथी, पदवीथी, अवाजनी मधुरताथी के शुभरागथी–एम बहारवडे
पोतानी अधिकता माने छे. अहो, ज्ञानस्वभावी आत्मा आखा विश्वथी अधिक छे,
ज्ञानस्वभावनी तोले आवे एवुं कोई विश्वमां नथी. माटे हे जीव! तुं आत्मानी किंमत
कर, ने बीजानी किंमत छोड. शरीर–पैसा वगेरे संयोगनो मोह छोड. बीजा पासे वधु
संयोग देखीने तेनी बळतरा छोड;– ‘आनी पासे घणुंय ने मारी पासे थोडुं’ –एवी
बळतराथी देवो पण दुःखी थाय छे–ए वात देवगतिना दुःखमां कहेशे.
देहमां मुर्छायेलो जीव पोताना साचारूपने जीव कई रीते ओळखे? –जेने
बालपणामां तो कांई ज्ञान नथी, युवानी जे विषयोमां गुमावे छे ने वृद्धावस्थामां
अर्धमृतक थई जाय छे, –ए रीते देहबुद्धिमां पोतानुं जीवन गुमावनारा जीवो आत्मानुं
स्वरूप कई रीते ओळखे? कैसे रूप लखै अपनो? - आम कहीने सम्यग्दर्शननी वात
लीधी छे. सम्यग्दर्शन पामवुं एटले के पोतानुं स्वरूप जाणवुं ते ज हितनो उपाय छे, ते
ज वितरागविज्ञान छे, ते ज संतगुरुओनी शिखामण छे, ने तेमां ज मनुष्यभवनी
सार्थकता छे. शुभरागनी वात न करी, कैसे रूप लखै अपनो एम कह्युं पण कैसे करै
शुभराग एम न कह्युं, केमके ते तो अनंतवार कर्या; शुभराग कर्यो त्यारे तो मनुष्य
थयो;–एटले ते कांई अपूर्व चीज नथी. पण पोतानुं रूप जाण्युं नहि, सम्यग्दर्शन कर्युं
नहि, एटले पोतानुं रूप लखवुं–अनुभववुं ते अपूर्व चीज छे, तेमां ज जीवनुं हित छे.
मोह छोडीने पोतानुं स्वरूप जाणवा मागे तो तो गमे त्यारे जाणी शके छे. पण
मोहथी जे बहारमां ज मथ्यो रहे ते पोताना निजस्वरूपने क्यांथी देखे? भाई, अत्यारे
आवो अवसर तने मळ्यो छे तो आत्माना हितने माटे वखत ले. मरतां तो आ बधुं अहीं
पडी रहेशे, माटे जीवतां ज तेनो मोह छोडीने आत्मानुं स्वरूप ओळखवानो उद्यम कर.
‘अत्यारे कमाई लईए, पछी वृद्धावस्थामां निवृत्ति लईने आत्मानुं कंईक
करीशुं! ’ –एम कहे. –पण भाई! वृद्धावस्था आवशे ज एवुं क्यां नक्की छे? घणाय
जीवो युवान अवस्थामां ज आयुष पूरुं थतां फू थईने चाल्या जाय छे, –एवा