: फागण : २४९प आत्मधर्म : १७ :
चिन्ता करतो नथी, पारकी चिन्ता तो व्यर्थ छे केमके तारी चिन्ता प्रमाणे तो कांई परमां
थतुं नथी. टी. बी. (क्षय) थाय, पक्षघात थाय, खबर पडे के हवे आ पथारीमांथी
ऊठीने कदी दुकाने जई शकवानो नथी, छतां पण पथारीमां सूतो सूतो आत्माना विचार
करे नहि पण घरना दुकानना के शरीरादिना विचार कर्या करे, ने पापना पोटला बांधीने
दुर्गतिमां जाय. नवरो पडे त्यारे पारकी चिन्ता करे छे तेने बदले आत्मानी चिन्ता करे
तो कोण रोके छे? कोई रोकतुं नथी; पण एने पोताने ज दरकार क्यां छे? अरेरे, एने
हजी भवदुःखनो थाक नथी लागतो! भाई, आ मनुष्यपणामांय नहि चेत, तो पछी
क्यारे चेतीश?
दौल! समज सुन चेत सयाने काल वृथा मत खोवे;
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहि होवे.
मृत्युंजय
ज्ञानी खरेखर मृत्युंजय छे एटले के तेमणे मृत्युने जीती लीधुं छे.
ज्ञानीने मरणनो भय नथी; केमके आत्मा कदी मरतो ज नथी, आत्मा तो
पोताना चैतन्यप्राणथी सदा जीवंत ज छे. –आवा आत्मजीवनने ज्यां
निःशंकपणे जाण्युं त्यां मरणनो भय क्यांथी होय?
देहमां जेने आत्मबुद्धि छे एवो अज्ञानी जीव, देहमां के संयोगमां कंईक
फेरफार थतां ‘हाय...हाय! हवे हुं मरी जईश, देह विना ने राग विना मारो
आत्मा जीवी नहि शके’–एम मरणथी भयभीत रहे छे. ज्ञानीए तो पोताना
आत्माने देहथी अत्यंत जुदो ज जाण्यो छे, –रागथीये पार अनुभव्यो छे,
एटले देह छूटवाना प्रसंगे पण मरणनी बीक तेने होती नथी. ज्यां मरण ज
मारुं नथी त्यां बीक कोनी?
वन जंगलमां संत मुनि आत्मध्यानमां बेठा होय....ने त्यां वाघनुं
टोळुं आवीने तेमने घेरी वळे...के बोम्बना गोळा वरसे तोपण मुनि भयभीत
थता नथी के आ वाघनुं टोळुं के आ बोम्बवर्षा मारो नाश करशे! ‘हुं तो
अरूपी ज्ञानस्वरूप छुं, मारुं ज्ञान अवध्य छे–कोईथी हणाय नहि, एटले आ
वाघनुं टोळुं के बोम्बनुं गोळुं मारो नाश करवा समर्थ नथी’–एम निःशंक
वर्तता थका ज्ञानी निर्भयपणे पोताना ज्ञानस्वरूपने साधीने सिद्ध थाय छे.