: २० : आत्मधर्म : फागण : २४९प
तेम हुं तो ज्ञानसूर्य छुं, सुख–दुःखना संयोग–वियोगरूपी वादळा आवे ने जाय,
पण तेथी शुं ज्ञानसूर्य ढंकाई जाय छे?–नहि! ए वादळा तो क्षणमां चाल्या जशे, ने हुं
ज्ञानसूर्य मारा चैतन्यतेजे चमकतो ज रहीश. सुख–दुःखना वादळा वडे मारी चैतन्यता
कदी ढंकाशे नहि.
* सिद्धना साधर्मी केम थवाय?
* सिद्ध जेवा पोताना आत्मानुं स्वसंवेदन करवाथी सिद्धना साधर्मी थवाय छे.
* पर साथे एकतानो मोह केम छूटे?
* चैतन्यस्वरूप पोताना आत्माने लक्षमां लईने अनुभव करतां ज पर साथे
एकतानो मोह छूटी जाय छे.
* व्यवहारने तमे मानो छो?
YES
* व्यवहारना आश्रये तमे धर्म मानो छो?
No
जीवनुं साचुं जीवन
जेणे जीवनी शुद्ध चैतन्यसत्तानो स्वीकार न कर्यो ने
बीजा वडे तेनुं जीवन (तेनुं टकवुं) मान्युं तेणे जीवना
स्वाधीन जीवनने हणी नांख्युं, पोते ज पोतानुं भावमरण कर्युं.
तेने अनंत शक्तिवाळुं स्वाधीन जीवन बतावीने ‘अनेकान्त’
वडे आचार्यदेव साचुं जीवन आपे छे. ‘भावमरणो’ टाळवा
माटे करुणा करीने अनंत आत्मशक्तिरूपी संजीवनी संतोए
आपी छे, –जेना वडे अविनाशी सिद्धपद पमाय छे. ए जीवनुं
साचुं जीवन छे, ते सुखी जीवन छे.
सिद्धभगवंतो सुखी जीवन जीवी रह्या छे; तेना साधक–
संतो पण सुखी जीवन जीवी रह्या छे. चैतन्यसत्तानी अनुभूति
आत्माने सुखी जीवन जीवाडे छे.