: फागण : २४९प आत्मधर्म : २१ :
अज्ञानी
‘अर्थनो अनर्थ’ करे छे
द्रव्य–गुण–पर्याय ते ‘अर्थ’ छे. द्रव्य पोते ज गुण–पर्यायोने पामे छे, ने गुण
पर्यायो पोते द्रव्यने पामे छे. पण ते कोई बीजा अर्थोने प्राप्त करता नथी के बीजा अर्थ
वडे प्राप्त कराता नथी. –आवी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था (वस्तुस्वरूप) छे.
हवे आवा अर्थने जे नथी जाणतो, ने पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायनो कोई अंश
बीजा वडे प्राप्त थवानुं माने छे, अथवा बीजाना कोई पण द्रव्य–गुण–पर्याय पोते करे
एम जे माने छे–ते ‘अर्थ’ नो अनर्थ करे छे. आंखना अंध करतां पण आ ‘अर्थनो
अनर्थ’ करनारने मिथ्यात्वनो महान दोष छे. द्रव्य–गुण–पर्यायरूप वस्तुना यथार्थ
स्वरूपने जाणतां मोहनो क्षय थाय छे.
वस्तु पोताना गुण–पर्यायमां रहे छे, एटले तेने ज ते करे छे; परना गुण–
पर्यायोने ते करती नथी. जो परने करे तो ते परमां चाली जाय ने पदार्थ–व्यवस्था ज न
रहे, अर्थनो अनर्थ थई जाय. माटे आचार्यदेव कहे छे के–
अहो, जिनेन्द्रदेवना परम अद्भुत उपदेशमां द्रव्य–गुण–पर्यायरूप
वस्तुस्वरूपनो यथार्थ बोध कराव्यो छे, तेने पामीने हे जीवो! तीक्ष्ण पुरुषार्थ वडे तमे
मोहनो नाश करो...ने आत्मस्वरूपना अतीन्द्रियसुखने अनुभवो.
* दरेक वस्तु पोतपोताना द्रव्य–गुण–पर्यायमां रहेली छे;
* मारा द्रव्य–गुण–पर्याय मारा चेतनरूप छे, तेने परनी साथे संबंध नथी;
* परना द्रव्य–गुण–पर्यायोने ते–ते पदार्थो साथे संबंध छे, मारी साथे तेने कांई
संबंध नथी.
–आम स्व–परना विभागद्वारा मोहनो नाश थाय छे. केमके जिनोपदेशअनुसार
स्व–परनी अत्यंत वहेंचणी करनार जीव, पोतानी पर्यायनी शुद्धी माटे बीजानी सामे
नथी जोतो (–पर साथे एकता नथी मानतो), पण पोताना स्वद्रव्यनी सन्मुख जुए
छे ने स्वमां ज एकत्व करीने परिणमे छे. ने एवा स्वभावसन्मुख परिणमनमां
मोहनो अभाव थईने निर्मोही वीतरागीदशा ने परम सुख प्रगटे छे.