Atmadharma magazine - Ank 305
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : फागण : २४९प
आवो मार्ग वीतरागनो
भाख्यो श्री भगवान
श्री गुरुदेव करुणाथी कहे छे के भाई! अनंतकाळे
आवो मोंघो मनुष्यभव मळ्‌यो तेमां तारा सत्स्वरूपने
लक्षमां ले...वीतरागमार्गमां कहेलुं ज्ञाननुं स्वरूप जाण. तारो
वीतरागी ज्ञानस्वभाव ज तने शरणरूप छे, बीजुं कोई नहि.
भगवान अंदर तारा आत्मानी सामे एकवार जो तो खरो.
* * * * *
जगतना जड–चेतन पदार्थो स्वतंत्र ज्ञेयो छे, ने आत्मा स्वतंत्र ज्ञाता छे.
पदार्थो द्रश्य छे, आत्मा द्रष्टा छे, तेमनी वच्चे कर्ता–कर्मपणानो संबंध नथी. जेम नदीमां
पाणीनां पूर वह्ये जतां होय ने कांठे ऊभोऊभो माणस स्थिर आंखे ते जोतो होय, त्यां
कांई ते माणस पूरमां तणाई जतो नथी, तेम परिणमी रहेला जगतना पदार्थोने
तटस्थपणे जाणनारो आत्मा, ते कांई परमां तणाई जतो नथी. जगतना पदार्थोना
कार्योना कर्ता ते पदार्थो पोते ज छे, आत्मा नहि. मकान–खोराक–शरीर वगेरे
पुद्गलमय पदार्थो ने जो आत्मा भोगवे तो आत्मा पण पुद्गलमय थई जाय. ए
पुद्गलमय पदार्थो तो जुदा छे, ने तेना तरफनी लागणीओ पण ज्ञानभावथी जुदी छे,
ज्ञान ते लागणीओने पण करतुं नथी–भोगवतुं नथी. आ शरीरना एक्केय रजकणने के
पग–हाथने आत्मा चलावतो नथी, आत्मा तेनो द्रष्टा–साक्षी छे.
पोतानो आवो ज्ञानस्वभावी आत्मा जेनी द्रष्टिमां आव्यो छे ते धर्मी जीव
रागादि विभावनुं कार्य ज्ञानने सोंपतो नथी, पोते तेनो कर्ता थतो नथी. आंखने वेळुं
उपाडवानुं काम सोंपाय नहि तेम ज्ञानचक्षुने जगतनां के रागनां काम सोंपाय नहि.
आत्मा ज्ञानमूर्ति चैतन्यपिंड छे, तेनां काम तो चैतन्यमय होय. अज्ञानीओ भ्रमणाथी
चैतन्यभगवानने पण जडनो (शरीरनो) कर्ता–भोक्ता माने छे, पण तेथी कांई ते तेने
करी के भोगवी तो शक्तो नथी. ऊंधी मान्यतानुं मिथ्यात्व तेने लागे छे. तेवा जीवने
आचार्यदेवे आत्मानो साचो स्वभाव समजाव्यो छे, –के जेने अनुभवमां लेतां ज परम
सुख अने धर्म थाय छे.