Atmadharma magazine - Ank 305
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९प आत्मधर्म : २५ :
गुण–गुणी अभेद छे, एटले जेम शुद्धज्ञान कर्मना बंध–मोक्षने के उदय–निर्जराने
करतुं नथी तेम शुद्धज्ञानपरिणत जीव पण तेने करतो नथी. शुद्धउपादानरूप चैतन्यभाव
अने तेना भानरूप शुद्ध ज्ञानपर्याय, तेमां क्यांय परनुं–रागनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी.
‘शुद्धज्ञान’ कहेतां स्वभाव तरफ ढळेली ज्ञानपर्याय. अथवा अभेदपणे ते
ज्ञानपर्यायरूपे परिणमेलो जीव, तेने रागनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी, त्रिकाळीवस्तुमां
नथी ने तेने अनुभवनारी पर्यायमां पण नथी.
जो आत्मा परने करे–भोगवे तो बंने पदार्थो एक थई जाय.
रागादिक पण उपाधिभावो छे, ते सहज शुद्धज्ञाननुं कार्य नथी.
आवा स्वभावनी शुद्धद्रष्टिरूपे परिणमेलो जीव शुद्धउपादानपणे रागादिने करतो
नथी; ते पोताना निर्मळ भावोने करे छे, पण परने करतो नथी. रागादि विभावनुं
कर्तृत्व–भोक्तृत्व अशुद्धउपादानमां छे, पण अंर्तद्रष्टिथी ज्यां शुद्धउपादानरूपे
परिणम्यो त्यां ते अशुद्धभावोनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी.
जगतमां आ जीव सिवायना बीजा जीवो तेमज अजीव पदार्थो छे, जीवनी
अवस्थामां रागादि छे,–ए बधायनुं अस्तित्व छे खरुं, पण शुद्धस्वभाव तरफ एटले के
साचा आत्मा तरफ वळेलो जीव ते बधायथी पोताने भिन्न अनुभवे छे. हुं चैतन्यसूर्य
छुं ज्ञानप्रकाशनो पूंज छुं–एवी अनुभवदशारूप परिणमेलो जीव ते रागादिनो कर्ता–
भोक्ता थतो नथी. निर्मळ पर्याय थई तेनी साथे अभेद जीव छे, एटले जेम निर्मळ
ज्ञानपर्यायमां परभावनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी तेम ते पर्यायरूपे परिणमेलो जीव पण
परभावनो कर्ता–भोक्ता नथी; शुद्धपर्यायमां के अखंड द्रव्यमां रागादिनुं कर्तृत्व–
भोक्तृत्व नथी. आवा आत्माने ओळखवो ते ज साचा आत्मानी ओळखाण छे, अने
ते ज सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान छे.
* वीतरागी अहिंसा ते परम धर्म *
अरे, तारी चैतन्यजातमां तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–आनंद भर्या छे. सिद्धपरमात्मा
जेवां गुणो तारामां भर्या छे, भाई! शरीरादि तो जडनां थईने रह्यां छे, ते तारामां
आव्यां नथी ने तारारूप थयां नथी. जे पोतानां नथी छतां तेनो हुं